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Tuesday, 28 April 2015

आज भी दश्त-ए-बला में-'अख्तर' सईद खान

आज भी दश्त-ए-बला में नहर पर पहरा रहा
कितनी सदियों बाद मैं आया मगर प्यासा रहा

क्या फ़ज़ा-ए-सुब्ह-ए-ख़ंदाँ क्या सवाद-ए-शाम-ए-ग़म
जिस तरफ़ देखा किया मैं देर तक हँसता रहा

इक सुलगता आशियाँ और बिजलियों की अंजुमन
पूछता किस से के मेरे घर में क्या था क्या रहा

ज़िंदगी क्या एक सन्नाटा था पिछली रात का
शम्में गुल होती रहीं दिल से धुँआ उठता रहा

क़ाफ़िले फूलों के गुज़रे इस तरफ़ से भी मगर
दिल का इक गोशा जो सूना था बहुत सूना रहा

तेरी इन हँसती हुई आँखों से निस्बत थी जिसे
मेरी पलकों पर वो आँसू उम्र भर ठहरा रहा

अब लहू बन कर मेरी आँखों से बह जाने को है
हाँ वही दिल जो हरीफ़-ए-जोशिश-ए-दरिया रहा

किस को फ़ुर्सत थी के 'अख़्तर' देखता मेरी तरफ़
मैं जहाँ जिस बज़्म में जब तक रहा तन्हा रहा.

Wednesday, 22 April 2015

'अख्तर' सईद खान-सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है

सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है तो ख़त्म क्या होगा
तुम्हारे घर से उधर भी ये रास्ता होगा

ज़माना सख़्त गिराँ ख़्वाब है मगर ऐ दिल
पुकार तो सही कोई तो जागता होगा

ये बे-सबब नहीं आए हैं आँख में आँसू
ख़ुशी का लम्हा कोई याद आ गया होगा

मेरा फ़साना हर इक दिल का माजरा तो न था
सुना भी होगा किसी ने तो क्या सुना होगा

फिर आज शाम से पैकार जान ओ तन में है
फिर आज दिल ने किसी को भुला दिया होगा

विदा कर मुझे ऐ ज़िंदगी गले मिल के
फिर ऐसा दोस्त न तुझ से कभी जुदा होगा

मैं ख़ुद से दूर हुआ जा रहा हूँ फिर 'अख़्तर'
वो फिर क़रीब से हो कर गुज़र गया होगा.

अख्तर' सईद खान-मुद्दत से लापता है

मुद्दत से लापता है ख़ुदा जाने क्या हुआ
फिरता था एक शख़्स तुम्हें पूछता हुआ

वो ज़िंदगी थी आप थे या कोई ख़्वाब था
जो कुछ था एक लम्हे को बस सामना हुआ

हम ने तेरे बग़ैर भी जी कर दिखा दिया
अब ये सवाल क्या है के फिर दिल का क्या हुआ

सो भी वो तू न देख सकी ऐ हवा-ए-दहर
सीने में इक चराग़ रक्खा था जला हुआ

दुनिया को ज़िद नुमाइश-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर से थी
फ़रियाद मैं ने की न ज़माना ख़फ़ा हुआ

हर अंजुमन में ध्यान उसी अंजुमन का है
जागा हो जैसे ख़्वाब कोई देखता हुआ

शायद चमन में जी न लगे लौट आऊँ मैं
सय्याद रख क़फ़स का अभी दर खुला हुआ

ये इज़्तिराब-ए-शौक़ है 'अख़्तर' के गुम-रही
मैं अपने क़ाफ़िले से हूँ कोसों बढ़ा हुआ.