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Sunday 3 May 2015

चीख उठा भगवान-श्यामनंदन किशोर

चीख उठा भगवान

चीख उठा मन्दिर की कारा से बन्दी भगवान-
पूजित होने दो पत्थर की जगह नया इन्सान,

जगत का होने दो कल्याण ।

मुक्त करो, अभियुक्त न हूँ, इन काली दीवारों से
और न अब गुमराह करो तुम श्रद्धा से, प्यारों से
ओ मंदिर-मस्जिद के तक्षक, ठेकेदार धरम के
करो स्वर्ग की पापभूमि पर मिट्टी का आह्वान,

जगत का होने दो कल्याण ।

मुझ पर नये सिंगार, न ढँक पाती जब मनु की लाज
मुझको भोग हज़ार, क्षुधा से मरता रहा समाज
बन्द करो, अब सहा न जाता मुझसे अत्याचार
बन्द करो, अब पत्थर पर तुम फूलों का बलिदान,

जगत का होने दो कल्याण ।

मंदिर का आंगन है जमघट लोभी का, वंचक का
महा अस्त्र है धर्म बन गया अन्यायी, शोषक का
कब तक बेच कफन मानव का, मूर्ति सजाओगे तुम,
कब तक चाँदी के टुकड़ों पर बेचोगे ईमान?

जगत का होने दो कल्याण ।

एक नया इन्सान भेद की कारा जो तोड़ेगा-
जो मिट्टी की शुचि काया में ही देवेत्व भरेगा
ओ मेरे गुमनाम विधाता, ओ मानव संतान
शिल्पकार अब बंद करो तुम प्रतिमा का निर्माण,

जगत का होने दो कल्याण ।

- श्यामनन्दन किशोर

Saturday 25 April 2015

श्यामनन्दन किशोर-मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ

मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।

थपकियों से आज झंझा
के भले ही दीप मेरा
बुझ रहा है, और पथ में,
जा रहा छाये अँधेरा ।

पर न है परवाह कुछ भी,
और कुछ भी ग़म नहीं है
ज्योति दीपक को, तिमिर को,
पथ की पहचान दी है ।

मैं लुटा सर्वस्व-संचित
पूर्ण भी हूँ, रिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

अग्नि-कण को फूँक कर,
ज्वाला बुझाई जा रही है
अश्रु दे दॄग में, जलन,
उर की मिटाई जा रही है ।

इस सुलभ वरदान को मैं,
क्यों नहीं अभिशाप समझूँ ?
मैं न क्यों इस सजल घन से,
है बरसता ताप समझूँ ?
मैं मरूँ क्या, मैं जिऊँ क्या,
शुष्क भी हूँ, सिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

मैं तुम्हारे प्राण के यदि,
अंक में तो क्या हुआ रे ?
है मनोरम कमल बसता
पंक में तो क्या हुआ रे ?
मैं तुम्हारे जाल में पड़
बद्ध भी हूँ, मुक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

Friday 24 April 2015

श्यामनन्दन किशोर-जगत का होने दो कल्याण

चीख उठा मन्दिर की कारा से बन्दी भगवान-
पूजित होने दो पत्थर की जगह नया इन्सान,

जगत का होने दो कल्याण ।

मुक्त करो, अभियुक्त न हूँ, इन काली दीवारों से
और न अब गुमराह करो तुम श्रद्धा से, प्यारों से
ओ मंदिर-मस्जिद के तक्षक, ठेकेदार धरम के
करो स्वर्ग की पापभूमि पर मिट्टी का आह्वान,

जगत का होने दो कल्याण ।

मुझ पर नये सिंगार, न ढँक पाती जब मनु की लाज
मुझको भोग हज़ार, क्षुधा से मरता रहा समाज
बन्द करो, अब सहा न जाता मुझसे अत्याचार
बन्द करो, अब पत्थर पर तुम फूलों का बलिदान,

जगत का होने दो कल्याण ।

मंदिर का आंगन है जमघट लोभी का, वंचक का
महा अस्त्र है धर्म बन गया अन्यायी, शोषक का
कब तक बेच कफन मानव का, मूर्ति सजाओगे तुम,
कब तक चाँदी के टुकड़ों पर बेचोगे ईमान?

जगत का होने दो कल्याण ।

एक नया इन्सान भेद की कारा जो तोड़ेगा-
जो मिट्टी की शुचि काया में ही देवेत्व भरेगा
ओ मेरे गुमनाम विधाता, ओ मानव संतान
शिल्पकार अब बंद करो तुम प्रतिमा का निर्माण,

जगत का होने दो कल्याण ।

- श्यामनन्दन किशोर