मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Friday 14 July 2017

उसूलों पर जहाँ आँच आए, टकराना ज़रूरी है

उसूलों पर जहाँ आँच आए, टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर, ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है

- वसीम बरेलवी

Friday 16 June 2017

कितना दुश्वार था दुनिया ये हुनर आना भी

कितना दुश्वार था दुनिया ये हुनर आना भी
तुझ से ही फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी।

वसीम बरेलवी

Wednesday 14 June 2017

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता ,
मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता ....

वसीम बरेलवी

Thursday 12 January 2017

कुछ इस तरह वह मेरी जिंदगी में आया था-वसीम बरेलवी

कुछ इस तरह वह मेरी जिंदगी में आया था
कि मेरा होते हुए भी, बस एक साया था
हवा में उडने की धुन ने यह दिन दिखाया था
उडान मेरी थी, लेकिन सफर पराया था
यह कौन राह दिखाकर चला गया मुझको
मैं जिंदगी में भला किस के काम आया था
मैं अपने वायदे पे कायम न रह सका वरना
वह थोडी दूर ही जाकर तो लौट आया था
न अब वह घर है , न उस के लोग याद “वसीम”
न जाने उसने कहाँ से मुझे चुराया था

मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो-वसीम बरेलवी

मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो
वो बेख़याल मुसाफ़िर, मैं रास्ता यारो
कहाँ था बस में मेरे, उस को रोकना यारो
मेरे क़लम पे ज़माने की गर्द ऐसी थी
के अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारो
तमाम शहर ही जिस की तलाश में गुम था
मैं उस के घर का पता किस से पूछता यारो

क्या बताऊं कैसे ख़ुद को दर-ब-दर मैंने किया-वसीम बरेलवी

क्या बताऊं कैसे ख़ुद को दर-ब-दर मैंने किया
उम्र भर किस-किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया
तू तो नफ़रत भी न कर पाएगा इतनी शिद्दत के साथ
जिस बला का प्यार तुझसे बे-ख़बर मैंने किया
कैसे बच्चों को बताऊं रास्तों के पेचो-ख़म*
ज़िन्दगी भर तो किताबों का सफ़र मैंने किया
शोहरतों की नज़्र* कर दी शेर की मासूमियत
इस दिये की रोशनी को दर-ब-दर मैंने किया
चंद जज़्बातों से रिश्तों के बचाने को ‘वसीम‘
कैसा-कैसा जब्र* अपने आप पर मैंने किया

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे-वसीम बरेलवी

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे
तेरी मर्जी के मुताबिक नज़र आयें कैसे
घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो की इस घर को बचाएं कैसे
क़हक़हा आँख का बर्ताव बदल देता है
हंसने वाले तुझे आंसू नज़र आयें कैसे
कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा
एक कतरे को समंदर नज़र आयें कैसे

खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं-वसीम बरेलवी

खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं
वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा
उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं
जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है ग़रूर
तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं
कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ दे
मेरे हाथों में मेरा घर तो है, दरवाज़ा नहीं
अपनों को अपना कहा, चाहे किसी दर्जे के हों
और अब ऐसा किया मैंने, तो शरमाया नहीं
उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी, जिनके चराग़
मैं भी कुछ होता, तो मेरा भी दिया होता नहीं
तुझसे क्या बिछड़ा, मेरी सारी हक़ीक़त खुल गयी
अब कोई मौसम मिले, तो मुझसे शरमाता नहीं

कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा-वसीम बरेलवी

कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा
मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना रो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाये तो अब मिलने का ग़म होगा
समन्दर की ग़लतफ़हमी से कोई पूछ तो लेता
ज़मीं का हौसला क्या ऐसे तूफ़ानों से कम होगा
मोहब्बत नापने का कोई पैमाना नहीं होता
कहीं तू बढ़ भी सकता है, कहीं तू मुझ से कम होगा