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Thursday 23 April 2015

अज़ीज़' वारसी-ये हम पर लुत्फ़ कैसा ये करम क्या

ये हम पर लुत्फ़ कैसा ये करम क्या
बदल डाले हैं अंदाज़-ए-सितम क्या

ज़माना हेच है अपनी नज़र में
ज़माने की ख़ुशी क्या और ग़म क्या

जब उस महफ़िल को हम कहते हैं अपना
फिर उस महफ़िल में फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम क्या

नज़र आती है दुनिया ख़ूब-सूरत
मेरे साग़र के आगे जाम ओ जम क्या

जबीं है बे-नियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ
दर-ए-बुत-ख़ाना क्या सेहन-ए-हरम क्या

तेरी चश्म-ए-करम हो जिस की जानिब
उसे फिर इम्तियाज़-ए-बेश-ओ-कम क्या

मेरे माह-ए-मुनव्वर तेरे आगे
चराग़-ए-दैर क्या शम्मा-ए-हरम क्या

निगाह-ए-नाज़ के दो शोबदे हैं
'अज़ीज़' अपना वजूद अपना अदम क्या

अज़ीज़' वारसी-ख़ुशी महसूस करता हूँ न ग़म महसूस करता हूँ

ख़ुशी महसूस करता हूँ न ग़म महसूस करता हूँ
बहर-आलम तुम्हारा ही करम महसूस करता हूँ

अलम अपना तो दुनिया में सभी महसूस करते हैं
मगर मैं हूँ के दुनिया का अलम महसूस करता हूँ

बस इतनी बात पर मोमिन मुझे काफ़िर समझते हैं
दर-ए-जानाँ को मेहराब-ए-हरम महसूस करता हूँ

अभी साक़ी का फ़ैज़-ए-आम शायद ना-मुकम्मल है
अभी कुछ इम्तियाज़-ए-बेश-ओ-कम महसूस करता हूँ

हरम वालों को अहल-ए-बुत-कदा कुछ भी समझते हों
मगर मैं बुत-कदे को भी हरम महसूस करता हूँ

मेरी तक़दीर से पहले संवारना जिन का मुश्किल है
तेरी ज़ुल्फ़ों में कुछ ऐसे भी ख़म महसूस करता हूँ

'अज़ीज़'-ए-वारसी ये भी किसी का मुझ पे एहसान है
के हर महफ़िल में अब अपना भरम महसूस करता हूँ

अज़ीज़' वारसी-उस ने मेरे मरने के लिए आज दुआ की

उस ने मेरे मरने के लिए आज दुआ की
या रब कहीं निय्यत न बदल जाए क़ज़ा की

आँखों में है जादू तेरी ज़ुल्फ़ों में है ख़ुश-बू
अब मुझ को ज़रूरत न दवा की न दुआ की

इक मुर्शिद-ए-बर-हक़ से है देरीना तअल्लुक़
परवाह नहीं मुझ को सज़ा की न जज़ा की

दोनों ही बराबर हैं रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा में
जब तुम ने वफ़ा की है तो हम ने भी वफ़ा की

ग़ैरों को ये शिकवा है के पीता है शब ओ रोज़
मै-ख़ाने का मुख़्तार तो अब तक नहीं शाकी

ये भी है यक़ीन मुझ को सज़ा वो नहीं देंगे
ये और भी है तस्लीम के हाँ मैं ने ख़ता की

इस दौर के इंसाँ को ख़ुदा भूल गया है 
तुम पर तो 'अज़ीज़' आज भी रहमत है ख़ुदा की