मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Monday 4 May 2015

वाह रे बेईमान-काका हाथरसी

मन मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार, 
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूठों के घर पंडित बाचें, कथा सत्य भगवान की, 
जय बोलो बेईमान की!

प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल। 
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोलो बेईमान की!

महंगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेल,
पंख लगाकर उड़ गए चीनी-मिट्टी-तेल। 
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़े बंद हुईं दुकान की,
जय बोलो बेईमान की!

डाक-तार-संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की!

चैक कैश कर बैंक से, लाया ठेकेदार, 
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार। 
बांकी झांकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बेईमान की!

वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तख्त किए, मिले चारसौ-बीस
मन-ही-मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बेईमान की!

खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
पांच रुपे की भेंट में, टूटायर मिल जायँ। 
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी. टी. भगवान की,
जय बोलो बेईमान की!

बेकारी औ भुखमरी, महंगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर। 
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बेईमान की!

मिल-मालिक से मिल जाएँ नेता नमकहलाल, 
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल। 
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बेईमान की!

न्याय और अन्याय का नोट करो डिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हांकले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती बोल रही बलवान की,
जय बोलो बेईमान की!

पर-उपकारी भावना पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख। 
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की, 
जय बोलो बेईमान की!

नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़क पर मर गया, हुई गरीबी दूर। 
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की!
जय बोलो बेईमान की!

काकी की बनारसी साड़ी-काका हाथरसी

कवि-सम्मेलन के लए बन्यौ अचानक प्लान ।
काकी के बिछुआ बजे, खड़े है गए कान ॥
खड़े है गए कान, ‘रहस्य छुपाय रहे हो’ ।
सब जानूँ मैं, आज बनारस जाय रहे हो ॥
‘काका’ बनिके व्यर्थ थुकायो जग में तुमने ।
कबहु बनारस की साड़ी नहिं बांधी हमने ॥

हे भगवन, सौगन्ध मैं आज दिवाऊं तोहि ।
कवि-पत्नी मत बनइयो, काहु जनम में मोहि ॥
काहु जनम में मोहि, रखें मतलब की यारी ।
छोटी-छोटी मांग न पूरी भई हमारी ॥
श्वास खींच के, आँख मीच आँसू ढरकाए ।
असली गालन पै नकली मोती लुढ़काए ॥

शांत ह्वे गयो क्रोध तब, मारी हमने चोट ।
‘साड़िन में खरचूं सबहि, सम्मेलन के नोट’ ॥
सम्मेलन के नोट? हाय ऐसों मत करियों ।
ख़बरदार द्वै साड़ी सों ज़्यादा मत लइयों ॥
हैं बनारसी ठग प्रसिद्ध तुम सूधे साधे ।
जितनें माँगें दाम लगइयों बासों आधे ॥


गाँठ बांध उनके वचन, पहुँचे बीच बज़ार ।
देख्यो एक दुकान पै, साड़िन कौ अंबार ॥
साड़िन कौ अंबार, डिज़ाइन बीस दिखाए ।
छाँटी साड़ी एक, दाम अस्सी बतलाए ॥
घरवारी की चेतावनी ध्यान में आई |
कर आधी कीमत, हमने चालीस लगाई ||

दुकनदार कह्बे लग्यो, “लेनी हो तो लेओ” ।
“मोल-तोल कूं छोड़ के साठ रुपैय्या देओ” ॥
साठ रुपैय्या देओ? जंची नहिं हमकूं भैय्या ।
स्वीकारो तो देदें तुमकूं तीस रुपैय्या ?
घटते-घटते जब पचास पै लाला आए ।
हमने फिर आधे करके पच्चीस लगाए ॥

लाला को जरि-बजरि के ज्ञान है गयो लुप्त ।
मारी साड़ी फेंक के, लैजा मामा मुफ्त |
लैजा मामा मुफ्त, कहे काका सों मामा |
लाला तू दुकनदार है कै पैजामा ||
अपने सिद्धांतन पै काका अडिग रहेंगे ।
मुफ्त देओ तो एक नहीं द्वै साड़ी लेंगे ॥

भागे जान बचाय के, दाब जेब के नोट ।
आगे एक दुकान पै देख्यो साइनबोट ॥
देख्यो साइनबोट, नज़र वा पै दौड़ाई ।
‘सूती साड़ी द्वै रुपया, रेशमी अढ़ाई’ ॥
कहं काका कवि, यह दुकान है सस्ती कितनी ।
बेचेंगे हाथरस, लै चलें दैदे जितनी ॥

भीतर घुसे दुकान में, बाबू आर्डर लेओ ।
सौ सूती सौ रेशमी साड़ी हमकूं देओ ॥
साड़ी हमकूं देओ, क्षणिक सन्नाटो छायो ।
डारी हमपे नज़र और लाला मुस्कायो ॥


भांग छानिके आयो है का दाढ़ी वारे ?
लिखे बोर्ड पै ‘ड्राइ-क्लीन’ के रेट हमारे ॥

तोंद की माया-काका हाथरसी

खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधि, लड्डू खाएं किलोल,

लड्डू खाएं किलोल, जपें खाने की माला,
ऊंची रिश्वत खाते, ऊंचे अफसर आला,

दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सिर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते,

दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर, 
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर,

कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएं भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी,

दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं…

सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय, 
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय,

नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएं,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएं,

उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूं, चप्पल खाते…

सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं, 
राजीव जी के सामने, मंत्री चक्कर खायं,

मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएं,
एलेक्शन में हार जायं तो मुंह की खाएं,

जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली…

मंदिर जाकर भक्तगण, खाते प्रभू प्रसाद, 
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद,

चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन,

अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते…

दद्दा खाएं दहेज में, दो नंबर के नोट, 
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होंट,

पंडित चाटें होंट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता,

काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का…

Friday 17 April 2015

कौन क्या-क्या खाता है - काका हाथरसी

कौन क्या-क्या खाता है ?
खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल।
लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला,
ऊँची रिश्वत खाते, ऊँचे अफसर आला।
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते।

दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर,
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर।
कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएँ भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी।
दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं।

सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय,
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय।
नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएँ,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएँ।
उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूँ, चप्पल खाते।

सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं,
राजीव जी के सामने मंत्री चक्कर खायं।
मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएँ,
एलेक्शन में हार जायं तो मुँह की खाएँ।
जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली।

मंदिर जाकर भक्तगण खाते प्रभू प्रसाद,
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद।
चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन।
अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते।

दद्दा खाएँ दहेज में, दो नंबर के नोट,
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होट।
पंडित चाटें होट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता।
काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का।

हास्याष्टक- काका हाथरसी

‘काका’ से कहने लगे, शिवानंद आचार्य
रोना-धोना पाप है, हास्य पुण्य का कार्य
हास्य पुण्य का कार्य, उदासी दूर भगाओ
रोग-शोक हों दूर, हास्यरस पियो-पिलाओ
क्षणभंगुर मानव जीवन, मस्ती से काटो
मनहूसों से बचो, हास्य का हलवा चाटो
आमंत्रित हैं, सब बूढ़े-बच्चे, नर-नारी
‘काका की चौपाल’ प्रतीक्षा करे तुम्हारी

चंद्रयात्रा और नेता का धंधा / काका हाथरसी

ठाकुर ठर्रा सिंह से बोले आलमगीर
पहुँच गये वो चाँद पर, मार लिया क्या तीर?
मार लिया क्या तीर, लौट पृथ्वी पर आये
किये करोड़ों ख़र्च, कंकड़ी मिट्टी लाये 
'काका', इससे लाख गुना अच्छा नेता का धंधा 
बिना चाँद पर चढ़े, हजम कर जाता चंदा

'ल्यूना-पन्द्रह' उड़ गया, चन्द्र लोक की ओर ।
पहुँच गया लौटा नहीं मचा विश्व में शोर ॥
मचा विश्व में शोर, सुन्दरी चीनी बाला ।
रहे चँद्रमा पर लेकर खरगोश निराला ॥
उस गुड़िया की चटक-मटक पर भटक गया है ।
अथवा 'बुढ़िया के चरखे' में अटक गया है ॥
कहँ काका कवि, गया चाँद पर लेने मिट्टी ।
मिशन हो गया फैल हो गयी गायब सिट्टी ॥


पहुँच गए जब चाँद पर, एल्ड्रिन, आर्मस्ट्रोंग ।
शायर- कवियों की हुई काव्य कल्पना 'रोंग' ॥
काव्य कल्पना 'रोंग', सुधाकर हमने जाने ।
कंकड़-पत्थर मिले, दूर के ढोल सुहाने ॥
कहँ काका कविराय, खबर यह जिस दिन आई ।
सभी चन्द्रमुखियों पर घोर निरशा छाई ॥


पार्वती कहने लगीं, सुनिए भोलेनाथ !
अब अच्छा लगता नहीं 'चन्द्र' आपके माथ ॥
'चन्द्र' आपके माथ, दया हमको आती है ।
बुद्धि आपकी तभी 'ठस्स' होती जाती है ॥
धन्य अपोलो ! तुमने पोल खोल कर रख दी ।
काकीजी ने 'करवाचौथ' कैंसिल कर दी ॥


सुघड़ सुरीली सुन्दरी दिल पर मारे चोट ।
चमक चाँद से भी अधिक कर दे लोटम पोट ॥
कर दे लोटम पोट, इसी से दिल बहलाएँ ।
चंदा जैसी चमकें, चन्द्रमुखी कहलाएँ ॥
मेकप करते-करते आगे बढ़ जाती है ।
अधिक प्रशंसा करो चाँद पर चढ़ जाती है ॥


प्रथम बार जब चाँद पर पहुँचे दो इंसान ।
कंकड़ पत्थर देखकर लौट आए श्रीमान ॥
लौट आए श्रीमान, खबर यह जिस दिन आई ।
सभी चन्द्रमुखियों पर घोर निरशा छाई ॥
पोल खुली चन्दा की, परिचित हुआ ज़माना ।
कोई नहीं चाहती अब चन्द्रमुखी कहलाना ॥


वित्तमंत्री से मिले, काका कवि अनजान ।
प्रश्न किया क्या चाँद पर रहते हैं इंसान ॥
रहते हैं इंसान, मारकर एक ठहाका ।
कहने लगे कि तुम बिलकुल बुद्धू हो काका ॥
अगर वहाँ मानव रहते, हम चुप रह जाते ।
अब तक सौ दो सौ करोड़ कर्जा ले आते ॥

मँहगाई / काका हाथरसी

जन-गण मन के देवता, अब तो आँखें खोल 
महँगाई से हो गया, जीवन डाँवाडोल 
जीवन डाँवाडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू 
कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू 
कहँ 'काका' कवि, दूध-दही को तरसे बच्चे 
आठ रुपये के किलो टमाटर, वह भी कच्चे 

राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर 
'क्यू' में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर 
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला 
खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला 
कहँ 'काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा 
लाला बोले-भागो, खत्म हो गया आटा

धमधूसर कव्वाल - काका हाथरसी

मेरठ में हमको मिले धमधूसर कव्वाल
तरबूजे सी खोपड़ी, ख़रबूजे से गाल
ख़रबूजे से गाल, देह हाथी सी पाई
लंबाई से ज़्यादा थी उनकी चौड़ाई
बस से उतरे, इक्कों के अड्डे तक आये
दर्शन कर घोड़ों ने आँसू टपकाये 
रिक्शे वाले डर गये, डील-डौल को देख
हिम्मत कर आगे बढ़ा, ताँगे वाला एक 
ताँगे वाला एक, चार रुपये मैं लूँगा
दो फ़ेरी कर, हुज़ूर को पहुँचा दूँगा

मसूरी यात्रा / काका हाथरसी

देवी जी कहने लगीं, कर घूँघट की आड़
हमको दिखलाए नहीं, तुमने कभी पहाड़
तुमने कभी पहाड़, हाय तकदीर हमारी
इससे तो अच्छा, मैं नर होती, तुम नारी
कहँ ‘काका’ कविराय, जोश तब हमको आया
मानचित्र भारत का लाकर उन्हें दिखाया
देखो इसमें ध्यान से, हल हो गया सवाल
यह शिमला, यह मसूरी, यह है नैनीताल
यह है नैनीताल, कहो घर बैठे-बैठे-
दिखला दिए पहाड़, बहादुर हैं हम कैसे ?
कहँ ‘काका’ कवि, चाय पिओ औ’ बिस्कुट कुतरो
पहाड़ क्या हैं, उतरो, चढ़ो, चढ़ो, फिर उतरो
यह सुनकर वे हो गईं लड़ने को तैयार
मेरे बटुए में पड़े, तुमसे मर्द हज़ार
तुमसे मर्द हज़ार, मुझे समझा है बच्ची ?
बहका लोगे कविता गढ़कर झूठी-सच्ची ?
कहँ ‘काका’ भयभीत हुए हम उनसे ऐसे
अपराधी हो कोतवाल के सम्मुख जैसे
आगा-पीछा देखकर करके सोच-विचार
हमने उनके सामने डाल दिए हथियार
डाल दिए हथियार, आज्ञा सिर पर धारी
चले मसूरी, रात्रि देहरादून गुजारी
कहँ ‘काका’, कविराय, रात-भर पड़ी नहीं कल
चूस गए सब ख़ून देहरादूनी खटमल
सुबह मसूरी के लिए बस में हुए सवार
खाई-खंदक देखकर, चढ़ने लगा बुखार
चढ़ने लगा बुखार, ले रहीं वे उबकाई
नींबू-चूरन-चटनी कुछ भी काम न आई
कहँ ‘काका’, वे बोंली, दिल मेरा बेकल है
हमने कहा कि पति से लड़ने का यह फल है
उनका ‘मूड’ खराब था, चित्त हमारा खिन्न
नगरपालिका का तभी आया सीमा-चिह्न
आया सीमा-चिह्न, रुका मोटर का पहिया
लाओ टैक्स, प्रत्येक सवारी डेढ़ रुपैया
कहँ ‘काका’ कवि, हम दोनों हैं एक सवारी
आधे हम हैं, आधी अर्धांगिनी हमारी
बस के अड्डे पर खड़े कुली पहनकर पैंट
हमें खींचकर ले गए, होटल के एजेंट
होटल के एजेंट, पड़े जीवन के लाले
दोनों बाँहें खींच रहे, दो होटल वाले
एक कहे मेरे होटल का भाड़ा कम है
दूजा बोला, मेरे यहाँ ‘फ्लैश-सिस्टम’ है
हे भगवान ! बचाइए, करो कृपा की छाँह
ये उखाड़ ले जाएँगे, आज हमारी बाँह
आज हमारी बाँह, दौड़कर आओ ऐसे
तुमने रक्षा करी ग्राह से गज की जैसे
कहँ ‘काका’ कवि, पुलिस-रूप धरके प्रभु आए
चक्र-सुदर्शन छोड़, हाथ में हंटर लाए
रख दाढ़ी पर हाथ हम, देख रहे मजदूर
रिक्शेवाले ने कहा, आदावर्ज हुजूर
आदावर्ज हुजूर, रखूँ बिस्तरा-टोकरी ?
मसजिद में दिलवा दूँ तुमको मुफ्त कोठरी ?
कहँ ‘काका’ कवि, क्या बकता है गाड़ीवाले
सभी मियाँ समझे हैं तुमने दाढ़ी वाले ?
चले गए अँगरेज पर, छोड़ गए निज छाप
भारतीय संस्कृति यहाँ सिसक रही चुपचाप
सिसक रही चुपचाप, बीवियां घूम रही हैं
पैंट पहनकर ‘मालरोड’ पर झूम रही हैं
कहँ ‘काका’, जब देखोगे लल्लू के दादा
धोखे में पड़ जाओगे, नर है या मादा
बीवी जी पर हो गया फैसन भूत सवार
संडे को साड़ी बँधी, मंडे को सलवार
मंडे को सलवार, बॉबकट बाल देखिए
देशी घोड़ी, चलती इंगलिश चाल देखिए
कहँ ‘काका’, फिर साहब ही क्यों रहें अछूते
आठ कोट, दस पैंट, अठारह जोड़ी जूते
भूल गए निज सभ्यता, बदल गया परिधान
पाश्चात्य रँग में रँगी, भारतीय संतान
भारतीय संतान रो रही माता हिंदी
आज सुहागिन नारि लगाना भूली बिंदी
कहँ ‘काका’ कवि, बोलो बच्चो डैडी-मम्मी
माता और पिता कहने की प्रथा निकम्मी
मित्र हमारे मिल गए कैप्टिन घोड़ासिंग
खींच ले गए ‘रिंक’ में देखी स्केटिंग
देखी स्केटिंग, हृदय हम मसल रहे थे
चंपो के संग मिस्टर चंपू फिसल रहे थे
काकी बोली-क्यों जी, ये किस तरह लुढ़कते
चाभी भरी हुई है या बिजली से चलते ?
हाथ जोड़ हमने कहा, लालाजी तुम धन्य
जीवन-भर करते रहो, इसी कोटि के पुन्य
इसी कोटि के पुन्य, नाम भारत में पाओ
बिना टिकट, वैकुंठ-धाम को सीधे जाओ
कहँ काकी ललकार-अरे यह क्या ले आए
बुद्धू हो तुम, पानी के पैसे दे आए ?
हलवाई कहने लगा, फेर मूँछ पर हाथ
दूध और जल का रहा आदिकाल से साथ
आदिकाल से साथ, कौन इससे बच सकता ?
मंसूरी में खालिस दूध नहीं पच सकता
सुन ‘काका’, हम आधा पानी नहीं मिलाएँ
पेट फूल दस-बीस यात्री नित मर जाएँ
पानी कहती हो इसे, तुम कैसी नादान ?
यह, मंसूरी ‘मिल्क’ है, जानो अमृत समान
जानो अमृत समान, अगर खालिस ले आते
आज शाम तक हम दोनों निश्चित मर जाते
कहँ ‘काका’, यह सुनकर और चढ़ गया पारा
गर्म हुईं वे, हृदय खौलने लगा हमारा
उनका मुखड़ा क्रोध से हुआ लाल तरबूज
और हमारी बुद्धि का बल्ब हो गया फ्यूज
बल्ब हो गया फ्यूज, दूध है अथवा पानी
यह मसला गंभीर बहुत है, मेरी रानी
कहँ ‘काका’ कवि, राष्ट्रसंघ में ले जाएँगे
अथवा इस पर ‘जनमत-संग्रह’ करवाएँगे
शीतयुद्ध-सा छिड़ गया, बढ़ने लगा तनाव
लालबुझक्कड़ आ गए, करने बीच-बचाव
करने बीच-बचाव, खोल निज मुँह का फाटक
एक साँस में सभी दूध पी गए गटागट
कहँ ‘काका’, यह न्याय देखकर काकी बोली-
चलो हाथरस, मंसूरी को मारो गोली

नाम बड़े, दर्शन छोटे / काका हाथरसी

नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर ?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने
कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर
मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में-
ज्ञानचंद छै बार फेल हो गए टैंथ में
कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे
देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्राय: निर्धन देखे
कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए क्वाँरे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे
दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं
‘काका’ छै फिट लंबे छोटूराम बनाए
नाम दिगंबरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए
पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी
कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा

Thursday 16 April 2015

कौन क्या-क्या खाता है - काका हाथरसी

कौन क्या-क्या खाता है ?
खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल।
लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला,
ऊँची रिश्वत खाते, ऊँचे अफसर आला।
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते।

दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर,
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर।
कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएँ भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी।
दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं।

सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय,
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय।
नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएँ,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएँ।
उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूँ, चप्पल खाते।

सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं,
राजीव जी के सामने मंत्री चक्कर खायं।
मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएँ,
एलेक्शन में हार जायं तो मुँह की खाएँ।
जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली।

मंदिर जाकर भक्तगण खाते प्रभू प्रसाद,
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद।
चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन।
अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते।

दद्दा खाएँ दहेज में, दो नंबर के नोट,
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होट।
पंडित चाटें होट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता।
काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का।