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Saturday 20 June 2015

ऊपर उठी शाखाओं के पीछे-इला कुमार

ऊपर उठी शाखाओं के पीछे है
शाम का आसमान
लम्बी पूँछ वाली चिड़िया एक एक शाख
नीचे उतरती है
उसकी भंगिमा में है थोड़ी हिचकिचाहट
थोड़ा संकोच

वह धीमे से झुककर पत्तों के बीच
थोड़ा रस पीने की चेष्टा करती है
उसके पंखों की छुअन में छिपी है कोमलता
ख़ूब सारी कोमलता

इच्छा होती है कि आए वह यहाँ 
कार की खिड़की के अन्दर
आकर बैठ जाए यहीं कहीं

छू लेने दे अपनी कोमल हिचकिची भंगिमा
मन की आकांक्षा आकाश की सतह पर
स्वयं को अंकित करने बढ़ चलती है।

एक पेड़-इला कुमार

एक पेड़ 
गैरेज के पार्श्व में बड़ा होता है
महलनुमा गृह के अहाते में

घर की माँ 
उसे काजू-वृक्ष समझकर खरीद लाई थी
दूर देश के मेले से

हर वर्ष बसंत-पतझड़ के दिनों को गिनता हुआ
साल-दर-साल
बाल्टी-बाल्टी पानी सोखता हुआ

वह तथाकथित काजू का वृक्ष
बढ़ता जाता है
पत्तियों का मुकुट संभाल, दरख़्ती पत्तों की बाहें फैलाए

डालियों से डाल 
डाल से डालियों को बार-बार पसारता हुआ
सालों-साल गुजरने के बीच

कई बार घर के मालिकनुमा बेटे की नज़रों में 
वह पेड़ खुभ जाता है
घूरती निगाहों से वृक्ष को चेतावनी
-इस साल न फले
तो कटवा दिए जाओगे!

आह! 

धमकियों के बीच फिर भी वह पेड़ बढ़ता है
सालों के बाद बसंत में
घर की माँ आशान्वित नजरों से 
उसकी कोख पर गहरी नजर डालती है

आख़िरकार
एक सुंदर सलोने समय के बीच
पेड़ की शाखों पर, डालियों पर 
नवे अंकुर झूम आए
वृक्ष ने स्वयं को रच डाला
नन्हीं फलियों को काजू जैसी मुरकनी झोपी में सजा

वह बादाम के स्वादवाली फलियों के संग
जग के सामने प्रस्तुत हुआ

वे फल 
फल तो थे
लेकिन वे फल काजू न थे

घर की नन्हीं बिटिया को 
अचरज है
दुःख से भरकर वह सोचती है

फला-फूला हुआ
वह फलदार दरख़्त
आखिर क्यों कटवा दिया गया

जिद मछली की-इला कुमार

समुद्र के रास्ते से आता है सूरज

सूर्य 
जो उदित होता है सीना चीरकर 
बादलों का 
धप्प् से गिर जाता है सागर की गोद में

गोद भी कैसी 
आर न पार कहीं ओर छोर दिखता नहीं

एक सुबह अल्ल्सबेरे जागी हुयी
छोटी सी मछली 
मचल गई देखेगी वह 
सूरज का आना 
तकती रही रह रह कर

दुऽप्प....! दुऽप्प....! सतह से ऊपर
बार बार 

जान नहीं पाई
कब और कैसे सूरज उग पड़ा

जिद मछली की
जरुर देखेगी वह जाना सूरज का
आख़िर
घूम फिरकर आएगा थककर 
खुली खुली अगोरती बाहों में
सागर के 

शाम की लाली तले एक बार फिर
दप्प से कूद गया सूरज
समंदर की अतल गहराइयों में 
न जाने कितने कालखंडों से तैर रही है
वही मछली 
दिग्भ्रमित
युग युगंतारों अतल तल को 
अपने डैनों से कचोटती 

क्या जान पायेगी कभी
ख़ुद ही है
वह सूरज और सागर भी

बादलों के पार स्थित 
निर्द्वन्द आकाश में उद्भूत 
अनन्य महाभाव भी

ठहरा हुआ एहसास-इला कुमार

एक एक बीता हुआ क्षण
हाँ 
पलों मे फासला तय करके वर्षो का
सिमट आता है सिहरनो में 
बंध जाना ज़ंजीरों से मृदुल धागों में 
सिर्फ़ इक जगमगाहट, 

कितनी ज़्यादा तेज सौ मर्करी की रोशनियों से 
कि
हर वाक्य को पढ़ना ही नहीं सुनना भी आसान
कितनी बरसातें आकर गई 

अभी तक मिटा नहीं नंगे पावों का एक भी निशान
क्या इतने दिनों में किसी ने छुआ नहीं 
बैठा भी नहीं कोई?

अभी भी दूब
वही दबी है जहाँ टिकाई थी, 
हथेलियाँ, हमने.

दौड़ जाने दो क्षण भर-इला कुमार

आपकी स्नेह भरी छाँव को झुठलाती मैं
नन्हीं चिड़िया सी घर में इधर-उधर फुदक जाती मैं

पर
उसी छाँव के सहारे पलती बढती
जाने कब हुई घने वृक्ष जैसी बड़ी मैं
पता नहीं बीते कितने बरस
भूल गए सारे के सारे, पुराने पल
इस क्षण ऊँचे लोहे के जालीदार गेट को देख
मन क्यों अकुलाया 
एक बार झूलने को हुआ तत्पर

मुड़कर पीछे देखने पर ज्यों 
निहारता है मुझे मीठी निगाहों से
कोई जादूगर 
ना, रोको नहीं मुझे
अभी क्षणांश में लौट आऊंगी
पर इस पल दौड़ जाने दो मुझे बाँहें फैलाए
फूली फ्राक के घेरे के संग-संग
बचपन कि कच्ची-पक्की गलियों में क्षण-भर

कहा था मैंने-इला कुमार

कहा था मैंने
लौटकर
कभी न कभी अवश्य आऊंगी

किसी गर्म उमस भरी दुपहरिया में
ठसाठस भरी बस से उतरकर
अपने शहर की मोहग्रस्त धरती पर

छूट गया समय
एक बारगी हिलक उठता है

दूर गुलमोहर के पीछे
आकाश के विस्तार में छिपी है
दो आकुल आँखों में भरी प्रतीक्षा

सम्पूर्ण सिहरते वजूद का यह वाष्पित दाब