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Wednesday 6 May 2015

मैं कब हारा हूँ काँटों से-धर्मवीर भारती

मैं कब हारा हूँ काँटों से, घबराया कब तूफ़ानों से ?
लेकिन रानी मैं डरता हूँ बन्धन के इन वरदानों से !


तुम मुझे बुलाती हो रानी, फूलों सा मादक प्यार जहाँ है 
काली अँधियाली रातों में पूनम का संचार जहाँ है 


लेकिन मेरी दुनिया में तो ताजे फूल बिखर जाते हैं 
यहाँ चाँद के भूखे टुकड़े सिसक-सिसक कर मर जाते हैं 


यहाँ गुलामी के चोंटों से दूर जवानी हो जाती है 
यहाँ जिन्दगी महज मौत की एक कहानी हो जाती है

 
यह सब देख रहा हूँ, फिर भी तुम कहती हो प्यार करूँ मैं 
यानी मुर्दों की छाती पर स्वप्नों का व्यापार करूँ मैं ?


यदि तुम शक्ति बनों जीवन की स्वागत आओ प्यार करें हम 
यदि तुम भक्ति बनो जीवन की स्वागत आओ प्यार करें हम 


लेकिन अगर प्यार के माने तुममें सीमित हो मिट जाना 
लेकिन अगर प्यार के माने सिसक-सिसक मन में घुट जाना 


तो बस मैं घुट कर मिट जाऊँ इतनी दुर्बल हृदय नहीं यह 
अगर प्यार कमजोरी है तो विदा-प्यार का समय नहीं यह !!

Sunday 26 April 2015

शाम-धर्मवीर भारती

शाम है, मैं उदास हूँ शायद
        अजनबी लोग अभी कुछ आयें
        देखिए अनछुए हुए सम्पुट
        कौन मोती सहेजकर लायें
        कौन जाने कि लौटती बेला
        कौन-से तार कहाँ छू जायें!

                    बात कुछ और छेड़िए तब तक
                    हो दवा ताकि बेकली की भी,
                    द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
                    ताकि आहट मिले गली की भी -

        देखिए आज कौन आता है -
        कौन-सी बात नयी कह जाये,
        या कि बाहर से लौट जाता है
        देहरी पर निशान रह जाये,
        देखिए ये लहर डुबोये, या
        सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाये,

                    कूल पर कुछ प्रवाल छूट जायें
                    या लहर सिर्फ़ फेनावली हो
                    अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
                    कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?

दो:

        वक़्त अब बीत गया बादल भी
        क्या उदास रंग ले आये,
        देखिए कुछ हुई है आहट-सी
        कौन है? तुम? चलो भले आये!
        अजनबी लौट चुके द्वारे से
        दर्द फिर लौटकर चले आये

                    क्या अजब है पुकारिए जितना
                    अजनबी कौन भला आता है
                    एक है दर्द वही अपना है
                    लौट हर बार चला आता है

        अनखिले गीत सब उसी के हैं
        अनकही बात भी उसी की है
        अनउगे दिन सब उसी के हैं
        अनहुई रात भी उसी की है
        जीत पहले-पहल मिली थी जो
        आखिरी मात भी उसी की है

                    एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
                    ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
                    लोग आये गये बराबर हैं
                    शाम गहरा गयी, उदासी भी!


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