मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


Showing posts with label बशीर बद्र. Show all posts
Showing posts with label बशीर बद्र. Show all posts

Friday 16 June 2017

आँखों में रहा दिल में उतरकर नहीं देखा

आँखों में रहा दिल में उतरकर नहीं देखा,
कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा

बशीर बद्र

Sunday 3 May 2015

सुनसान रास्तों से सवारी न आएगी -बसीर बद्र


ये बसीर बद्र की हसीन गजलों में से एक गजल हैं जहाँ पे शायर अपनी अकेलेपन की फितरत का इजहार करता है। वास्तव में कवि या शायर दुनिया की नजर में अकेला ही होता है। एक कवि की साथी कविता हीं होती है । रास्ता ही शायर हा हमसफ़र होता है। प्रस्तुत है बसीर बद्र की खूबसूरत गजलों में से एक गजल:-

"सुनसान रास्तों से सवारी न आएगी
अब धूल से अटी हुई लारी न आएगी

छप्पर के चायख़ाने भी अब ऊंघने लगे
पैदल चलो के कोई सवारी न आएगी

तहरीरों गुफ़्तगू में किसे ढूँढ़ते हैं लोग
तस्वीर में भी शक्ल हमारी न आएगी

सर पर ज़मीन लेके हवाओं के साथ जा
आहिस्ता चलने वाले की बारी न आएगी

पहचान हमने अपनी मिटाई है इस तरह
बच्चों में कोई बात हमारी न आएगी "

Saturday 25 April 2015

बशीर बद्र-कभी यूँ भी आ

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफत भी अता करे
तुझे भूलने की दु‌आ करूँ, तो दु‌आ में मेरी असर न हो

कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा, कभी खत्म अपना सफर न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं, के बिछड़ने का कभी डर न हो

बशीर बद्र-रात के साथ रात लेटी थी

रात के साथ रात लेटी थी 
सुबह एक पालने में रोती थी 

याद की बर्फपोश टहनी पर
एक गिलहरी उदास बैठी थी

मैं ये समझा के लौट आए तुम
धूप कल इतनी उजली उजली थी 

कितने शादाब, कितने दिलकश थे
जब नदी रोज हमसे मिलती थी

एक कुर्ते के बाएँ कोने पर
प्यार की सुर्ख तितली बैठी थी

कितनी हल्की कमीज़ पहने हुए 
सुबह अंगड़ाई लेके बैठी थी 

बशीर बद्र-सिसकते आब में किस की सदा है

सिसकते आब में किस की सदा है
कोई दरिया की तह में रो रहा है

सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा
ख़ुदा चरो तरफ़ बिखरा हुआ है

समेटो और सीने में छुपा लो
ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है

पके गेंहू की ख़ुश्बू चीखती है
बदन अपना सुनेहरा हो चला है

हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है
समन्दर कैसा बूढ़ा देवता है

हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ता
हवा के होंठ अक्सर चूमता है

मुझे उन नीली आँखों ने बताया
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है