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Monday 27 April 2015

नास्तिक / रांगेय राघव

तुम सीमाओं के प्रेमी हो, मुझको वही अकथ्य है,
मुझको वह विश्वास चाहिए जो औरों का सत्य है ।
मेरी व्यापक स्वानुभूति में क्या जानो, क्या बात है
सब-कुछ ज्यों कोरा काग़ज़ है, यहाँ कोई न घात है ।

तर्कों में न सिद्धि रहती है, क्योंकि ज्ञान सापेक्ष्य है,
श्रद्धा में गति रुक जाती है, क्योंकि अन्त स्वीकार है,
मुझे एक ऐसा पथ दो जो दोनों में आपेक्ष्य है,
जीत वही है असली, जिसमें नहीं किसी की हार है ।

अन्तिम कविता / रांगेय राघव

जब मयकदे से निकला मैं राह के किनारे
मुझसे पुकार बोला प्याला वहाँ पड़ा था,
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
इस धूल से न डरना, इसमें सदा सहारा ।

मैं हार देखता था वीरान आस्माँ को
बोला तभी नजूमी मुझसे : भटक नहीं तू
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
जो आँधियों ने फिर से अपना जुनूँ उभारा ।

मैं पूछता हूँ सबसे — गर्दिश कहाँ थमेगी
जब मौत आज की है दि कल हैं ज़िन्दगी के
धोखे का डर करूँ क्या रूकना न जब कहीं है—
कोई मुझे बता दो, मुझको मिले सहारा !