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Saturday 20 June 2015

इस समाधि की राखों में-केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’

इस समाधि की राखों में,
उन्माद किसी का सोया है!
कितनी बार यहां आकर,
बेजार किसी ने रोया है!
तड़प चुका है थाम कलेजा,
इन चरणों में कितनी बार!
अरे, यहीं आकर अपना,
सर्वस्व किसी ने खोया है!
तू है रूप-किशोर और,
मैं तो तेरा मतवाला हूं;
इस समाधि-मंदिर का मैं ही,
अलख जगानेवाला हूं!
आए ऋतुपति पर न खिलीं ये
मंजुल-कलियां वनमाली!
क्या इस बार न पान करेंगे
अलि मधुमाधव की प्याली!
कूक रहीं आतुर-आशाएं,
पिकी-सरीखी डालों पर;
कौन लुटावेगा जीवन-निधि,
प्यार-भरी इन चालों पर?
उस अतीत की सुख-समाधि पर,
हृदय-रक्त के छींटे फेंक!
यह ऋतुपति क्यों आज कर रहा,
पतझड़ का उदास-अभिषेक!

मेरे मन! तू दीपक-सा जल-केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’

जल-जल कर उज्ज्वल कर प्रतिपल
प्रिय का उत्सव-गेह
जीवन तेरे लिये खड़ा है
लेकर नीरव स्नेह
प्रथम-किरण तू ही अनंत की
तू ही अंतिम रश्मि सुकोमल
मेरे मन! तू दीपक-सा जल

‘लौ’ के कंपन से बनता
क्षण में पृथ्वी-आकाश
काल-चिता पर खिल उठता जब
तेरा ऊर्म्मिल हास
सृजन-पुलक की मधुर रागिणी
तू ही गीत, तान, लय अविकल
मेरे मन! तू दीपक-सा जल

जीवन का सर्वस्व-केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’

इस अगाध में तिनके को भी
मिलता नहीं सहारा!
उधर खड़ा है हंसी उड़ाता
वह पगलों का प्यारा!
जीवन का सर्वस्व बहा जाता है
इन लहरों में!
प्रलय तड़पता आह! कलेजा
पकड़े करुण स्वरों में!

यह प्रहार झंझा-समीर का!
चूर-चूर हो जाऊंगा!
अंतिम-घड़ियां नाच रहीं
प्यारे! किस तट पर पाऊंगा?

बीते दिवसों की कहानियां
कितनी मर्म-मधुर हैं आह!
कितनी है विषाद उनमें करुणा का
कितना प्रखर-प्रवाह!!
आंखों से गिर अश्रु-कणों का
उन चरणों से लिपटाना!
अरुण-उषा के ओस-कुसुम-सा
उनका फिर मुरझा जाना!!

तीक्ष्ण-तीर-सी स्मृतियां आ
अंतर-तल में छिप जाती हैं!
अरे, छेड़ मत, रहने दे
ये बड़ा दुःख पहुंचाती हैं!

सुनो हुआ वह शंख-निनाद-केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

सुनो हुआ वह शंख-निनाद! 
नभ में गहन दुरूह दुर्ग का 
द्वार खुला कर भैरव घोष, 
उठ मसान की भीषण ज्वाला 
बढी शून्य की ओर सरोष 
अतल सिंधु हो गया उस्थलित 
काँप उठा विक्षुब्ध दिगंत 
अट्टहास कर लगा नचाने 
रक्त चरण में ध्वंसक अंत! 
सुनो हुआ वह शंख-निनाद! 
यह स्वतंत्रता का सेवक है 
क्रांति मूर्ति है यह साकार 
विश्वदेव का दिव्य दूत है 
सर्वनाश का लघु अवतार 
प्रलय अग्नि की चिनगारी है 
सावधान जग ऑंखें खोल 
देख रूप इसका तेजोमय 
सुन इसका संदेश अमोल 
सुनो हुआ वह शंख-निनाद!

देवता की याचना-केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

इतना विस्तृत आकाश-अकेला मैं हूँ 
तुम अपने सपनों का अधिवास मुझे दो। 
नीला-नीला विस्तार, हिलोरों में यों ही बहता हूँ 
सूनी-सूनी झंकार, न जाने क्यों उदास रहता हूँ 
यह अमृत चाँद का तनिक न अच्छा लगता 
प्रिय! तुम अपनी रसवंती प्यास मुझे दो। 
कण-कण में चारों ओर छलकती नृत्य-चपल मधुबेला 
झूमे-बेसुध सौंदर्य, लगा है मधुर रूप का मेला 
ऐसी घडियों का व्यंग न सह पाता हूँ 
तुम अपने प्राणों का उच्छ्वास मुझे दो। 
नंदन के चंदन से शीतल छंदों की क्यारी-क्यारी 
सब कुछ देती, देती न मुझे मैं चाँ जो चिनगारी 
रम जाऊँ मैं जिसके अक्षर-अक्षर में 
वह गीली पलकों का इतिहास मुझे दो। 
यह देश तुम्हारे लिए बसाया मैंने सुघर-सलोना 
कोमल पत्तों के बीच जहाँ ओसों का चाँदी-सोना 
उतरूँगा सुख से मैं अंकुर-अंकुर में 
तृण-तरु में मिलने का विश्वास मुझे दो।