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Tuesday 19 May 2015

विश्व का प्यारा कहीं कोई ’हृदय’-माखनलाल चतुर्वेदी

वीर सा, गंभीर-सा है यह खड़ा,
:धीर होकर यों अड़ा मैदान में,
:देखता हूँ मैं जिसे तन-दान में,
:जन-दान में, सानंद जीवन-दान में।
हट रहा है दंभ आदर-प्यार से,
::बढ़ रहा जो आप अपनों के लिए,
डट रहा है जो प्रहारों के लिए,
::विश्व की भरपूर मारों के लिए।
:देवताओं को यहाँ पर बलि करो
:दानवों का छोड़ दो सब दु:ख भय;
:"कौन है?" यह है महान मनुष्य़ता
:और, है संसार का सच्चा हृदय।
क्यों पड़ीं परतंत्रता की बेड़ियाँ?
::दासता की हाय हथकड़ियाँ पड़ीं
न्याय के मुँह बन्द फाँसी के लिए,--
::कंठ पर जंजीर की लड़ियाँ पड़ीं।
:दास्य-भावों के हलाहल से हरे!
:भर रहा प्यारा हमारा देश क्यों?
:यह पिशाची उच्च-शिक्षा-सर्पिणी
:कर रही वर वीरता निःशेष क्यों?
वह सुनो आकाश वाणी हो रही--
::"नाश पाता जायगा तब तक विजय"--
वीर?--’ना’, धार्मिक? ’नहीं’ सत्कवि? ’नहीं’--
::"देश में पैदा न हों जब तक ’हृदय’"।
:देश में बलवान भी भरपूर हैं
:और पुस्तक-कीट भी थोड़े नहीं,
:हैं अमित धार्मिक ढले टकसाल के
:पर किसी ने भी हृदय जोड़े नहीं।
ठोकरें खाती मनों की शक्तियाँ
::’राम मूर्ति’ बने खुशामद कर रहे,
पूजते हैं,--देवता द्रवते नहीं,
::दीन-दब्बू बन करोड़ों मर रहे।
:’हे हरे! रक्षा करो’--यह मत कहो
:चाहते हो इस दशा पर जो विजय,
:तो उठो, ढूँढो, छुपा होगा वहीं
:राष्ट्र का बलि, देश का ऊँचा ’हृदय’।

:फूल से कोमल, छबीला रत्न से,
:वज्र से दृढ़, शुचि-सुगंधी यज्ञ से,
:अग्नि से जाज्वल्य, हिम से शीत भी,
:सूर्य से देदीप्यमान, मनोज्ञ से।

:वायु से पतला, पहाड़ों से बड़ा
:भूमि से बढ़कर क्षमा की मूर्ति है;
:कर्म का अवतार-रूप-शरीर जो-
:श्वास क्या, संसार की वह स्फूर्ति है;
मन महोदधि है, वचन पीयूष है
::परम निर्दय है, बड़ा भारी सदय;
कौन है? है देश का जीवन यही,--
::और है वह जो कहाता है ’हृदय’।
:सृष्टि पर अति कष्ट जब होते रहे,
:विश्व में फैली भयानक भ्रान्तियाँ
:दण्ड, अत्याचार, बढ़ते ही गये,
:कट गये लाखों मिटी विश्रान्तियाँ,
गद्दियाँ टूटीं असुर मारे गये
::किस तरह? होकर करोड़ों क्रान्तियाँ,
तब कहीं है पा सकी मातामही
::मृदुल-जीवन में मनोहर शान्तियाँ।
:बज उठीं संसार भर की तालियाँ
:गालियाँ पलटीं, हुई ध्वनि, जयति जय,
:पर हुआ यह कब? जहाँ दीखा कभी
:विश्व का प्यारा कहीं कोई ’हृदय’।

Wednesday 6 May 2015

दीप से दीप जले-माखनलाल चतुर्वेदी

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।

Thursday 16 April 2015

पुष्प की अभिलाषा - माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!

मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।