मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


Showing posts with label अदम गौंडवी. Show all posts
Showing posts with label अदम गौंडवी. Show all posts

Saturday 9 May 2015

महेज़ तनख़्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाइ के-अदम गोंडवी

महेज़ तनख़्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाइ के।
हज़ारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के ।

ये सूखे की निशानी उनके ड्राइंगरूम में देखो,
जो टी० वी० का नया सेट है रखा ऊपर तिपाई के ।

मिसेज़ सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं,
पिछली बाढ़ के तोहफ़े हैं, ये कंगन कलाई के।

ये 'मैकाले' के बेटे ख़ुद को जाने क्या समझते हैं,
कि इनके सामने हम लोग 'थारू' हैं तराई के ।

भारत माँ की एक तस्वीर मैंने यूँ बनाई है,
बँधी है एक बेबस गाय खूँटे में कसाई के ।

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे-अदम गोंडवी

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे

तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे

एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे

घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है-अदम गोंडवी

घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है ।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है ।

भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारिन-सी,
ये सुब‍हे-फ़रवरी बीमार पत्नी से भी पीली है ।

बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में,
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है ।

सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर एहसास कैसे हो,
मुहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है ।

ये समझते हैं, खिले हैं तो फिर बिखरना है-अदम गोंडवी

ये समझते हैं, खिले हैं तो फिर बिखरना है ।
पर अपने ख़ून से गुलशन में रंग भरना है ।

उससे मिलने को कई मोड़ से गुज़रना है । 
अभी तो आग के दरिया में भी उतरना है ।

जिसके आने से बदल जाए ज़माने का निज़ाम,
ऐसे इंसान को इस ख़ाक से उभरना है ।

बह रहा दरिया, इधर एक घूँट को तरसें,
उदय प्रताप जी[2] वादे से ये मुकरना है ।

अदम सुकून में जब कायनात होती है-अदम गोंडवी

'अदम' सुकून में जब कायनात होती है ।
कभी-कभार मेरी उससे बात होती है ।

कहीं हो ज़िक्र अक़ीदत से सर झुका देना,
बड़ी अज़ीम ये औरत की ज़ात होती है ।

उफ़ुक पे खींच दे पर्दा, चराग़ जल जाए,
हम अगर सोच लें तो दिन में रात होती है ।

नवीन जंग छिड़ी है इधर विचारों में,
रोज़ इस मोर्चे पर शह व मात होती है ।

समझ के तन्हा न इस शख़्स को दावत देना,
'अदम' के साथ ग़मों की बरात होती है।

टी०वी० से अख़बार तक ग़र सेक्स की बौछार हो-अदम गोंडवी

टी०वी० से अख़बार तक ग़र सेक्स की बौछार हो ।
फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो ।

बह गए कितने सिकन्दर वक़्त के सैलाब में,
अक़्ल इस कच्चे घड़े से कैसे दरिया पार हो ।

सभ्यता ने मौत से डर कर उठाए हैं क़दम,
ताज की कारीगरी या चीन की दीवार हो ।

मेरी ख़ुद्दारी ने अपना सर झुकाया दो जगह,
वो कोई मज़लूम हो या साहिबे-किरदार हो ।

एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो ।

हीरामन बेज़ार है उफ़्! किस कदर महँगाई से-अदम गोंडवी

हीरामन बेज़ार है उफ़्! किस कदर महँगाई से ।
आपकी दिल्ली में उत्तर-आधुनिकता आई है ।

टी० वी० से अख़बार तक हैं, जिस्म के मोहक कटाव,
ये हमारी सोच है, ये सोच की गहराई है ।

सबका मालिक एक है, रटते भी हैं, लड़ते भी हैं,
सदियों के संघर्ष से क्या दृष्टि हमने पाई है ।

जो व्यवस्था को बदलने के लिए बेताब थे,
क़ैद उनके बंगले में इस मुल्क की रानाई है ।

रहनुमा धृतराष्ट्र के पद-चिन्ह पर चलने लगे,
आप चुप बैठे रहें ये क़ौम की रुस्वाई है ।

ये दुखड़ा रो रहे थे आज पंडित जी शिवाले में-अदम गोंडवी

विकट बाढ़ की करुण कहानी, नदियों का संन्यास लिखा है ।
बूढ़े बरगद के वल्कल पर सदियों का इतिहास लिखा है ।
क्रूर नियति ने इसकी क़िस्मत से कैसा खिलवाड़ किया है,
मन के पृष्ठों पर शाकुन्तल, अधरों पर संत्रास लिखा है।
छाया मदिर महकती रहती, गोया तुलसी की चौपाई,
लेकिन स्वप्निल स्मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।
लू के गर्म झकोरों से जब पछुवा तन को झुलसा जाती,
इसने मेरी तन्हाई के मरुथल में मधुमास लिखा है ।
अर्द्धतृप्ति, उद्दाम वासना, ये मानव-जीवन का सच है,
धरती के इस खण्डकाव्य पर विरहदग्ध उच्छ्वास लिखा है

विकट बाढ़ की करुण कहानी, नदियों का संन्यास लिखा है-अदम गोंडवी

विकट बाढ़ की करुण कहानी, नदियों का संन्यास लिखा है ।
बूढ़े बरगद के वल्कल  पर सदियों का इतिहास लिखा है ।

क्रूर नियति ने इसकी क़िस्मत से कैसा खिलवाड़ किया है,
मन के पृष्ठों पर शाकुन्तल, अधरों पर संत्रास लिखा है।

छाया मदिर महकती रहती, गोया तुलसी की चौपाई,
लेकिन स्वप्निल स्मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।

लू के गर्म झकोरों से जब पछुवा तन को झुलसा जाती,
इसने मेरी तन्हाई के मरुथल में मधुमास लिखा है ।

अर्द्धतृप्ति, उद्दाम वासना, ये मानव-जीवन का सच है,
धरती के इस खण्डकाव्य पर विरहदग्ध उच्छ्वास लिखा है

Thursday 7 May 2015

नफ़रत के रेगिस्तान को-अदम गोंडवी

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।

सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।

शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।

पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को ।

जली माचिस की तीली है-अदम गोंडवी

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।

भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।

बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।

माथे की शिकन तक ले चलो-अदम गोंडवी

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धिखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

आएगी कितने साल में-अदम गोंडवी

जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में-अदम गोंडवी

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
 
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

ले चलूँगा आपको-अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
 
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
 
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

एक नया इतिहास लिखेंगे-अदम गोंडवी

मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे ।
हम अपने इस कालखण्ड का एक नया इतिहास लिखेंगे ।

सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर,
उन दलितों की करुण कहानी मुद्रा  से रैदास लिखेंगे ।

प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से खारिज़ करके,
ये 'ओशो' के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष लिखेंगे ।

एक अलग ही छवि बनती है परम्परा भंजक होने से,
तुलसी इनके लिए विधर्मी, देरिदा को ख़ास लिखेंगे ।

इनके कुत्सित सम्बन्धों से पाठक का क्या लेना-देना,
लेकिन ये तो अड़े हैं ज़िद पे अपना भोग-विलास लिखेंगे ।

दुनिया है विरोधाभास की-अदम गौंडवी

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष-प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिए, यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर अहसास की

घीसू के पसीने से-अदम गौंडवी

न महलों की बुलंदी से, न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिए पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिरां में ताक़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
संजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को करीने से

अहसासात को मत छेड़िए-अदम गौंडवी

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़लतियाँ बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक़ वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, ज़ार या चंगेज़ ख़ां
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त! मेरे मजहबी नग़्मात को मत छेड़िए

इक क़हर है ज़िन्दगी-अदम गौंडवी

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साए में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी

रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी

दफ़्न होता है जहाँ आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी