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Saturday 25 April 2015

इक़बाल-चाँद और सितारे

डरते-डरते दमे-सहर से,
तारे कहने लगे क़मर से ।
नज़्ज़ारे रहे वही फ़लक पर,
हम थक भी गये चमक-चमक कर ।
काम अपना है सुबह-ओ-शाम चलना,
चलन, चलना, मुदाम चलना ।
बेताब है इस जहां की हर शै,
कहते हैं जिसे सकूं, नहीं है ।

होगा कभी ख़त्म यह सफ़र क्या ?
मंज़िल कभी आयेगी नज़र क्या ?

कहने लगा चाँद, हमनशीनो !
ऐ मज़रअ-ए-शब के खोशाचीनो !
जुंबिश से है ज़िन्दगी जहां की,
यह रस्म क़दीम है यहाँ की ।
इस रह में मुक़ाम बेमहल है,
पोशीदा क़रार में अज़ल है ।
चलने वाले निकल गये हैं,
जो ठहरे ज़रा, कुचल गये हैं ॥



दमे-सहर - प्रभात
क़मर - चाँद
मुदाम - निरन्तर
मज़रअ-ए-शब - रात की खेती
खोशाचीनो - बालियां चुनने वालों
क़दीम - प्राचीन
बेमहल - असंगत
पोशीदा - निहित
क़रार - ठहराव
अज़ल - मृत्यु

Sunday 19 April 2015

सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा-इक़बाल

सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्‍तां[1] हमारा।।
गुरबत[2] में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में।
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा।।
परबत वो सबसे ऊँचा हमसाया आस्‍मां का।
      वो संतरी हमारा, वो पासबां[3] हमारा।।
गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियां।
      गुलशन[4] है जिनके दम से रश्‍के-जना[5] हमारा।।
ऐ आबे-रौदे-गंगा[6] वो दिन हैं याद तुमको।
      उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा।।
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
      हिन्‍दी हैं हम, वतन है हिन्‍दोस्‍तां हमारा।।
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहां से।
      अब तक मगर है बाक़ी नामों-निशां हमारा।।
कुछ बात है कि हस्‍ती मिटती नहीं हमारी।
      सदियों रहा है दुश्‍मन दौरे-ज़मां[7] हमारा।।
'इकबाल’! कोई महरम[8] अपना नहीं जहां[9] में।
      मालूम क्‍या किसी को दर्दे-‍निहां[10] हमारा।।