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Saturday 20 June 2015

दुःख-एकांत श्रीवास्तव

दु:ख जब तक हृदय में था
था बर्फ़ की तरह
पिघला तो उमड़ा आँसू बनकर
गिरा तो जल की तरह मिट्टी में
रिस गया भीतर बीज तक
बीज से फूल तक
यह जो फूल खिला है टहनी पर
इसे देखकर क्या तुम कह सकते हो
कि इसके जन्म का कारण 
एक दु:ख था?

ख़ून की कमी-एकांत श्रीवास्तव

टीकाटीक दोपहर में
भरी सड़क
चक्कर खा कर गिरती है रुकमनी
ख़ून की कमी है
कहते हैं डाक्टर

क्या करे रुकमनी
ख़ुद को देखे कि तीन बच्चों को
पति ख़ुद मरीज़
खाँसता हुआ खींचता रिक्शा
आठ-आठ घरॊं में झाड़ू-बरतन करती रुकमनी
चक्करघिन्नी-सी काटती चक्कर

बच्चों का मुँह देखती है
तो सूख जाता है उसका ख़ून
पति की पसलियाँ देखती है
तो सूख जाता है
काम से निकाल देने की
मालकिनों की धमकियों से
तो रोज़ छनकता रहता है
बूंद-बूंद ख़ून
बाज़ार में चीज़ों की कीमतों ने
कितना तो औटा दिया है
उसके ख़ून को

शिमला सेब और देशी टमाटर से
तुम्हारे गालों की लाली
कितनी बढ़ गई है
और देखो तो
कितना कम हो गया है यहाँ
प्रतिशत हीमोग्लोबिन का

शरीर-रचना विज्ञानी जानते हैं
कि किस जटिल प्रक्रिया से गुज़र कर
बनता है बूंद भर ख़ून शरीर में
कि जिसकी कमी से
चक्कर खाकर गिरती है रुकमनी

और कितना ख़ून
तुम बहा देते हो यूँ ही
इस देश में
जाति का ख़ून
धर्म का
भाषा का ख़ून ।

अनाम चिड़िया के नाम-एकांत श्रीवास्तव

गंगा इमली की पत्तियों में छुपकर 
एक चिड़िया मुँह अँधेरे
बोलती है बहुत मीठी आवाज़ में 
न जाने क्या
न जाने किससे 
और बरसता है पानी
 
आधी नींद में खाट-बिस्तर समेटकर
घरों के भीतर भागते हैं लोग
कुछ झुँझलाए, कुछ प्रसन्न
 
घटाटोप अंधकार में चमकती है बिजली
मूसलधार बरसता है पानी 
सजल हो जाती हैं खेत
तृप्त हो जाती हैं पुरखों की आत्माएँ
टूटने से बच जाता है मन का मेरुदंड

कहती है मंगतिन
इसी चिड़िया का आवाज़ से 
आते हैं मेघ
सुदूर समुद्रों से उठकर

ओ चिड़िया 
तुम बोले बारम्बार गाँव में
घर में, घाट में, वन में 
पत्थर हो चुके आदमी के मन में ।

विरुद्ध कथा-एकांत श्रीवास्तव

पहले भाव पैदा हुए
फिर शब्द
फिर उन शब्दों को गानेवाले कंठ
फिर उन कंठों को दबानेवाले हाथ

पहले सूर्य पैदा हुआ
फिर धरती
फिर उस धरती को बसानेवाले जन
फिर उन जनों को सतानेवाला तंत्र

पहले पत्थर पैदा हुए
फिर आग
फिर उस आग को बचानेवाले अलाव
फिर उन अलावों को बुझानेवाला इंद्र

जो पैदा हुए, मरे नहीं
मारनेवालों के विरुद्ध खड़े हुए
हम फूल थे
पत्थर बने
कड़े हुए
इस तरह इस धरती पर बड़े हुए ।

लोहा-एकांत श्रीवास्तव

जंग लगा लोहा पांव में चुभता है
तो मैं टिटनेस का इंजेक्शन लगवाता हूँ
लोहे से बचने के लिए नहीं
उसके जंग के संक्रमण से बचने के लिए
मैं तो बचाकर रखना चाहता हूँ
उस लोहे को जो मेरे खून में है
जीने के लिए इस संसार में
रोज़ लोहा लेना पड़ता है
एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है
दूसरा इज़्ज़त के साथ
उसे खाने के लिए
एक लोहा पुरखों के बीज को
बचाने के लिए लेना पड़ता है
दूसरा उसे उगाने के लिए
मिट्टी में, हवा में, पानी में
पालक में और खून में जो लोहा है
यही सारा लोहा काम आता है एक दिन
फूल जैसी धरती को बचाने में