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Saturday 20 June 2015

समा गए मेरी नज़रों में छा गए दिल पर-असग़र गोण्डवी

समा गए मेरी नज़रों में छा गए दिल पर।
ख़याल करता हूँ, उनको कि देखता हूँ मैं॥

न कोई नाम है मेरा न कोई सूरत है।
कुछ इस तरह हमातनदीद हो गया हूं मैं॥

न कामयाब हुआ और न रह गया महरूम।
बडा़ ग़ज़ब है कि मंज़िल पै खो गया हूँ मैं॥

बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ , न मस्ती है न होश-असग़र गोण्डवी

बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ , न मस्ती है न होश
ज़र्रे सब साकित ओ सामत हैं, सितारे ख़ामोश

नज़र आती है मज़ाहिर में मेरी शक्ल मुझे
फ़ितरत-ए-आईना बदस्त और मैं हैरान-ओ-ख़ामोश

तर्जुमानी की मुझे आज इजाज़त दे दे
शजर-ए-"तूर" है साकित, लब-ए-मन्सूर ख़ामोश

बहर आवाज़ "अनल बहर" अगर दे तो बजा
पर्दा-ए-क़तरा-ए-नाचीज़ से क्यूँ है यह ख़रोश?

हस्ती-ए-ग़ालिब से गवारा-ए-फ़ितरत जुम्बां
ख़्वाब में तिफ़्लक-ए-आलम है सरासर मदहोश

पर्तव-ए-महर ही ज़ौक़-ए-राम ओ बेदारी दे
बिस्तर-ए-गुल पे है इक क़तरा-ए-शबनम मदहोश

ये इश्क़ ने देखा है ये अक़्ल से पिन्हाँ है-असग़र गोण्डवी

ये इश्क़ ने देखा है, ये अक़्ल से पिन्हाँ है
क़तरे में समन्दर है, ज़र्रे में बयाबाँ है

ऐ पैकर-ए-महबूबी मैं, किस से तुझे देखूँ
जिस ने तुझे देखा है, वो दीदा-ए-हैराँ है

सौ बार तेरा दामन, हाथों में मेरे आया
जब आँख खुली देखा, अपना ही गिरेबाँ है

ये हुस्न की मौजें हैं, या जोश-ए-तमन्ना है
उस शोख़ के होंठों पर, इक बर्क़-सी लरज़ाँ है

"असग़र" से मिले लेकिन, "असग़र" को नहीं देखा
अशआर में सुनते हैं, कुछ-कुछ वो नुमायाँ है

खुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से-असग़र गोण्डवी

खुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए- दीवाना बरसों से
कि उस को ढूँढते हैं काबा-ओ-बुतखाना बरसों से 

तड़पना है न जलना है न जलकर ख़ाक होना है
ये क्यों सोई हुई है फ़ितरत-ए-परवाना बरसों से 

कोई ऐसा नहीं यारब कि जो इस दर्द को समझे
नहीं मालूम क्यों ख़ामोश है दीवाना बरसों से 

हसीनों पर न रंग आया न फूलों में बहार आई 
नहीं आया जो लब पर नग़मा-ए-मस्ताना बरसों से

ये मुझसे पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है-असग़र गोण्डवी

ये मुझ से पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है 
फ़ज़ा-ए-दहर में तहलियल हो गया हूँ मैं 

हटाके शीशा-ओ-सागर हुज़ूम-ए-मस्ती में 
तमाम अरसा-ए-आलम पे छा गया हूँ मैं

उड़ा हूँ जब तो फलक पे लिया है दम जा कर 
ज़मीं को तोड़ गया हूँ जो रह गया हूँ मैं

रही है खाक के ज़र्रों में भी चमक मेरी 
कभी कभी तो सितारों में मिल गया हूँ मैं 

समा गये मेरी नज़रों में छा गये दिल पर 
ख़याल करता हूँ उन को कि देखता हूँ मैं

ये राज़ है मेरी ज़िंदगी का-असग़र गोण्डवी

ये राज़ है मेरी ज़िंदगी का 
पहने हुए हूँ कफ़न खुदी का 

फिर नश्तर-ए-गम से छेड़ते हैं 
इक तर्ज़ है ये भी दिल दही का 

ओ लफ्ज़-ओ-बयाँ में छुपाने वाले 
अब क़स्द है और खामोशी का 

मारना तो है इब्तदा की इक बात 
जीना है कमाल मुंतही का 

हाँ सीना गुलों की तरह कर चाक 
दे मार के सबूत ज़िंदगी का