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Sunday 26 April 2015

गोपाल प्रसाद व्यास-कलम घिसी है, गीत रचे हैं।

मैं हिन्दी का अदना कवि हूं,
कलम घिसी है, गीत रचे हैं।
व्यंग्य और उपहास किए हैं,
बहुत छपे हैं, बहुत बचे हैं।
मैंने भी सपने देखे थे,
स्वतंत्रता से स्वर्ग मिलेगा।
मुरझाए जन-मन-मानस में,
प्रसन्नता का कलम खिलेगा।

इसीलिए ही लाठी खाईं,
घर-जमीन भी फिसल गई थीं।
गोरों की गोलियां बगल से,
सन-सन करती निकल गई थीं।
पत्नी की परवाह नहीं की,
बच्चे भी अनाथ डोले थे।
पर स्वतंत्रता के आते ही,
नेताओं की जय बोले थे।

लाखों जन ऐसे भी निकले,
जोकि सुबह थे, शाम होगए।
जिनके घर नीलाम होगए,
सर भी कत्ले-आम होगए।
और हजारों ऐसे भी थे,
जो अपनापन भूल गए थे।
हंसते-हंसते कोड़े खाए,
फिर फांसी पर झूल गए थे।

जो जंगल-जंगल भटके थे,
छिपे-छिपे सब-कुछ करते थे।
आजादी की आग लगी थी,
और मारकर ही मरते थे।
कुछ उनमें फाकानशीन थे,
जिंदा रहने की मशीन थे,
झंडे पर कुर्बान होगए,
भारत मां की शान होगए।

जिनके लिए जेल मंदिर था,
सदा पैर उसके अंदर था।
पराधीनता ही डायन थी,
हर गोरा उनको बंदर था।
जो सिर का सौदा करते थे,
नाम सुना दुश्मन डरते थे।
कुछ होली, कुछ ईद होगए,
लाखों वीर शहीद होगए।

मेरी तरह सभी ने यारो,
रात-रात सपने बोए थे।
भारत मां की दीन-दशा पर,
ज़ार-ज़ार हम सब रोए थे।
सिर्फ इसलिए- अपना भारत
फिर से शोषणहीन हो सके।
मिटे विषमता, सरसे समता,
जन-गण स्वस्थ, अदीन हो सके।

गोपाल प्रसाद व्यास-ईश्वर की लूट

एक दिन ईश्वर के घर लूट हुई-
चूहा दांत ले भागा
बिल्ली मूंछें
खुदा स्टोर तलाश करने लगा
किससे पूछें ?
ऊंट ने उठाकर
उसे अपने पेट में फिट कर लिया था
हाथी ने बुद्धि का बंडल
अपने कब्जे में कर लिया था,
घोड़े ने शक्ति
कुत्ते ने भक्ति
सियार ने संगीत
हिरनी ने अनुरक्ति
सूअर ने सृजन
बंदर ने तोड़-फोड़
शुतुरमुर्ग ने पलायन
लोमड़ी ने जोड़-तोड़
गाय ने श्रद्धा

भालू ने ताड़ी का अद्धा
गधे ने सहनशीलता
कुतिया ने अश्लीलता
शेर ने सम्मान
देसी पिल्ले ने अपमान........
जब खजाना खाली होगया
पहुंचा इन्सान।







खुदा बोला-
इन्सानियत तो रही नहीं
उसे तो जानवर ले गए
अब तो हमारे पास
हैवानियत, खुदगर्ज़ी
और बे-मौसम के काम-क्रोध ही रह गए हैं
चाहो तो ले जाओ !
मनुष्य बोला-लाओ, जल्दी लाओ !

गोपाल प्रसाद व्यास-जूते चले गए

जी, कुछ भी बात नहीं थी,
अच्छा-बीछा घर से आया था।
बीवी ने बड़े चाव से मुझको,
बालूजा पहनाया था।

बोली थीं, ''देखो, हंसी नहीं,
जब कभी मंच पर जाना तुम।
ये हिन्दी का सम्मेलन है,
जूतों को ज़रा बचाना तुम !''

''क्या मतलब ?'' तो हंसकर बोलीं-
''जब से आज़ादी आई है,
'जग्गो के चाचा' तुमने तो,
सारी अकल गंवाई है !

इन सभा और सम्मेलन में
जो बड़े-बड़े जन आते हैं।
तुम नहीं समझना इन्हें बड़े,
उद्देश्य खींचकर लाते हैं।

इनमें आधे तो ऐसे हैं,
जिनको घर में कुछ काम नहीं।
आधे में आधे ऐसे हैं,
जिनको घर में आराम नहीं।

मतलब कि नहीं बीवी जिनके,
या बीवी जिन्हें सताती है।
या नए-नए प्रेमीजन हैं,
औ' नींद देर से आती है।''

मैंने टोका-लेक्चर छोड़ो,
मतलब की बात बताओ तुम !
लाओ, होती है देर, जरा
वह ओवरकोट उठाओ तुम।

''हे कामरेड, हिन्दीवालों की,
निंदा नहीं किया करते।
ये सरस्वती के पूत, किसी के
जूते नहीं लिया करते।
फिर सम्मेलन में तो सजनी
नेता-ही-नेता आते हैं,
उनको जूतों की कौन कमी !
आते-खाते ले जाते हैं।''

तो बोलीं, ''इन बातों को मैं,
बिलकुल भी नहीं मानती हूं,
मैं तुमको और तुम्हारे,
नेताओं को खूब जानती हूं।

सच मानो, नहीं मज़ाक,
सभा में ऐसे ही कुछ आते हैं,
जो ऊपर से सज्जन लगते,
लेकिन जूते ले जाते हैं।

सो मैं जतलाए देती हूं,
जूतों से अलग न होना तुम !
ये न्यू कट अभी पिन्हाया है,
देखो न इसे खो देना तुम !


उन स्वयंसेवकों की बातों पर,
हरगिज ध्यान न देना तुम ।
ये लंबी-लंबी जेबें हैं,
जूते इनमें रख लेना तुम ।''

पर क्या बतलाऊं मैं साहब,
बीवी का कहा नहीं माना,
औरत कह करके टाल दिया,
बातों का मर्म नहीं जाना।

मैं कुछ घंटों के लिए लीडरी,
करने को ललचा आया,
जूतों को जेब न दिखलाई,
बाहर ही उन्हें छोड़ आया।

मैं वहां मंच पर बैठा, बस,
खुद को ही पंत समझता था,
पब्लिक ने चौखट समझा हो,
खुद को गुणवंत समझता था।

जी, जूतों की क्या बात, वहां
मैं अपने को ही भूल गया,
जो भीड़ सामने देखी तो
हिन्दी का नेता फूल गया।

पर खुली मोह-निद्रा मेरी,
तो उदित पुराने पाप हुए,
बाहर आ करके देखा तो
जूते सचमुच ही साफ हुए ।

गोपाल प्रसाद व्यास-ये लाली के लाला चले आ रहे हैं।

है कद इनका गुटका
मगर पेट मटका,
अजब इनकी बोली,
गज़ब इनका लटका,
है आंखों में सुरमा,
औ' कानों में बाला,
ये ओढ़े दुशाला चले आ रहे हैं !
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं !

कभी ये न अटके,
कभी ये न भटके,
खरे ही चले इनके
सिक्के गिलट के।
खरे ये न खोटे,
लुढ़कने ये लोटे,
बिना पंख देखो उड़े जा रहे हैं !
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं !

है ओठों पे लाली,
रुखों पर गुलाली,
घड़ी जेब में है,
छड़ी भी निराली,
ये सोने में पलते,
ये चांदी में चलते,
ये लोहे में ढलते हैं गरमा रहे हैं !
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं !


ये कम नापते हैं,
ये कम तोलते हैं,
ये कम जांचते हैं,
ये कम बोलते हैं,
ये 'ला' ही पढ़े हैं,
तभी तो बढ़े हैं,
न छेड़ो इन्हें, हाय शरमा रहे हैं !
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं !

ये पोले नहीं हैं,
बड़ा इनमें दम है,
ये भोले नहीं हैं,
छंटी ये रकम हैं,
बड़ा हाज़मा है,
इन्हें सब हज़म है
हैं बातें बहुत, हम न कह पा रहे हैं !
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं !

पढ़ें इनके नौकर,
अजी, ये गुने हैं,
किसी भाड़ में ये न
अब तक भुने हैं,
हो सरदार कोई,
या सरकार कोई,
ये बढ़ते रहे हैं, बढ़े जा रहे हैं,
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं।


गोपाल प्रसाद व्यास-धन्यवाद

उनका कलम उन्हें लौटाया - धन्यवाद जी !
पत्र लिखा तो उत्तर आया - धन्यवाद जी !
छायावाद, रहस्यवाद तो बहुत सुने थे,
किंतु कहां से आ टपका यह धन्यवाद जी !

पत्नीवाद मान लेने से गदगद औरत,
पूंजीवाद पकड़ लेने से मिलती दौलत !
सत्य, अहिंसा, सदाचार को मारो गोली,
गांधीवादी को मिल जाती इनसे मोहलत।

मार्क्सवाद के हो-हल्ले में,
नाम-धाम तो हो जाता है।
लेकिन कोरे धन्यवाद में,
क्या जाता है, क्या आता है ?

भेजा - नहीं रसीद पहुंच की
आया - फाइल करें कहां पर ?
धन्यवाद धोबी का कुत्ता -
घर से घाट, घाट से फिर घर।

चला यहां से, गया वहां को,
वहां न पहुंचा, गया कहां फिर ?
घूम रहा है मारा-मारा,
धन्यवाद है नेता का सिर।

नेताजी भाषण देते हैं,
लालाजी पहनाते माला,
संयोजक ने पूरा डिब्बा
मक्खन का खाली कर डाला।

लेकिन जनता बिगड़ उठी है -
इसे उतारो, उसे लाद दो।
मटरूमल जी जल्दी आओ,
खत्म करो अब धन्यवाद दो !

धन्यवाद है या कि मुसीबत ?
बला आगई, इसको टालो।
जिसका भाषण नहीं कराना,
उससे धन्यवाद दिलवा लो।

अयशपाल जी धन्यवाद का -
भाषण देने खड़े हुए हैं।
लोग उठ गए, नेता गायब,
वह माइक पर अड़े हुए हैं।

धन्यवाद है या पत्थर है ?
आए हो तो खाना होगा।
माला भले नहीं ले जाओ
धन्यवाद ले जाना होगा !

धन्यवाद ऐसी गाली है,
देकर इसे लेख लौटा दो।
धन्यवाद उल्लू का पट्ठा -
खड़ा रहेगा, भले लिटा दो।

नाक काटकर उसे उढ़ा दो
धन्यवाद वह दोशाला है।
पाकर हाथ जोड़ने पड़ते,
ठंडी कॉफी का प्याला है।

गोपालजी व्यास-नई क्रांति

कल मुझसे मेरी 'वे' बोलीं
''क्योंजी, एक बात बताओगे ?''
''हां-हां, क्यों नहीं!'' जरा मुझको
इसका रहस्य समझाओगे ?
देखो, सन्‌ सत्तावन बीता,
सब-कुछ ठंडा, सब-कुछ रीता,
कहते थे लोग गदर होगा,
आदमी पुनः बंदर होगा।
पर मुन्ना तक भी डरा नहीं।
एक चूहा तक भी मरा नहीं !
पहले जैसी गद्दारी है,
पहले-सी चोरबजारी है,
दिन-दिन दूनी मक्कारी है,
यह भ्रांति कहो कब जाएगी ?
अब क्रांति कहो कब आएगी ?''

यह भी क्या पूछी बात, प्रिये !
लाओ, कुछ आगे हाथ प्रिये !
हां, शनि मंगल पर आया है,
उसने ही प्रश्न सुझाया है।

तो सुनो, तुम्हें समझाता हूं,
अक्कल का बटन दबाता हूं,
पर्दा जो पड़ा उठाता हूं,
हो गई क्रांति बतलाता हूं।

होगए मूर्ख विद्वान, प्रिये !
गंजे बन गए महान प्रिये !
दल्लाल लगे कविता करने,
कवि लोग लगे पानी भरने,
तिकड़म का ओपन गेट प्रिये !
नेता से मुश्कल भेंट प्रिये !
मंत्री का मोटा पेट, प्रिये !
यह क्रांति नहीं तो क्या है जी ?
यह गदर नहीं तो क्या है जी ?

"लो लिख लो मेरी बातों को,
क्रांति के नए उत्पातों को।
अब नर स्वतंत्र, नारी स्वतंत्र,
शादी स्वतंत्र, यारी स्वतंत्र,
कपड़े की हर धारी स्वतंत्र,
घर-घर में फैला प्रजातंत्र।
पति बेचारे का ह्रास हुआ।
क्या खूब कोढ़ बिल पास हुआ !
अब हर घर की खाई समाप्त,
रुपया, आना, पाई समाप्त ।
पिछला जो कुछ था झूठा है,
अगला ही सिर्फ अनूठा है,
अणु फैल-फैलकर फूटा है,
दसखत की जगह अंगूठा है।
यह क्रांति नहीं तो क्या है जी ?
यह गदर नहीं तो क्या है जी ?"

"आदमी कहीं मरता है, जी,
बंदूकों से तलवारों से ?
आदमी कहीं डरता है, जी,
गोली-गोलों की मारों से ?
बढ़ते जाते ये (बन) मानुष,
युद्धों से कब घबराते हैं ?

खुद को ही स्वयं मिटाने को,
हथियार बनाए जाते हैं।
इसलिए नहीं अब दुश्मन को
सम्मुख ललकारा जाता है,

बस, शीतयुद्ध में दूर-दूर
से ही फटकारा जाता है,
मुस्काकर फांसा जाता है,
हॅंसकर चुमकारा जाता है,
पीछे से घोंपा जाता है,
मिल करके मारा जाता है,
यह क्रांति नहीं तो क्या है, जी ?
यह गदर नहीं तो क्या है, जी ?"

"अभिनेत्री बनतीं सीता जी,
अखबार बने हैं गीता जी।
चेले गुरुओं को डांट रहे,
अंधे खैरातें बंट रहे,
महलों में कुत्ते रोते हैं,
अफसर दफ्तर में सोते हैं।
भगवान अजायबघर में हैं,
पंडे बैठे मंदिर में हैं।
गीदड़ कुर्सी पा जाते हैं,
बगुले पाते हैं वोट यहां,
कौए गिनते हैं नोट यहां।
उल्लू चिड़ियों का राजा है,
भोंपू ही बढ़िया बाजा है।
गदही ही श्रेष्ठ गायिका है।
लायक अब सिर्फ 'लायका' है।
यह क्रांति नहीं तो क्या है, जी ?
यह गदर नहीं तो क्या है, जी ?

गोपाल प्रसाद व्यास-भाभीजी नमस्ते

'भाभीजी, नमस्ते !'
'आओ लाला, बैठो !' बोलीं भाभी हंसते-हंसते।
'भाभी, भय्या कहां गए हैं ?' 'टेढ़े-मेढ़े रस्ते !'
'तभी तुम्हारे मुरझाए हैं भाभीजी, गुलदस्ते !'
'अक्सर संध्या को पुरुषों के सिर पर सींग उकसते !'
'रस्सी तुड़ा भाग ही जाते, हारी कसते-कसते !'
'लेकिन सधे कबूतर भाभी, नहीं कहीं भी फंसते !
अपनी छतरी पर ही जमते, ज्यों अक्षर पर मस्ते !'
'भाभीजी, नमस्ते !'

'भाभी बड़ी सलौनी ।
बंगाली में भालो-भालो, पंजाबी में सौनी।
ऐसी स्वस्थ, सनेह-चीकनी, ज्यों माखन की लौनी।
अतिशय चारु चपल अनियारी, मानो मृग की छौनी।
पत्नी ठंडा भात, कि साली भी बेहद मिरचौनी।
लेकिन मेरी भाभी जैसे रस की भरी भगौनी।
ऐसी मीठी, ऐसी मनहर, ऐसी नौनी-नौनी।
घंटाघर पर मिलती जैसे, दही-बड़े की दौनी।
भाभी बड़ी सलौनी ।

देवर बड़ा रंगीला।
कोई मजनूं होगा, लेकिन यह मजनूं का टीला।
पैंट पहनता चिपका-चिपका, कोट पहनता ढीला।
ऐसी चलता चाल कि जैसे बन्ना हो शर्मीला।
वैसे तो यह बड़ा बहादुर, बनता है बमदीला।
पर घर में बीवी के डर से रहता पीला-पीला।
बाहर से है सूखा-सूखा, अंदर गीला-गीला।
मधुबाला को भूल गया अब भाती इसे शकीला।
देवर बड़ा रंगीला।
'भाभी मेरे मन की
बात सुनो !' 'क्यों सुनूं, महाशय ! तुम हो पूरे सनकी !'
'किस सन्‌ की बाबत कहती हो ?' वह बोली, 'पचपन की।
जब कमीज़ से नाक पोंछते, याद करो बचपन की।
टुकुर-टुकुर क्या देख रहे हो ?' 'सुंदरता कंकन की।'
'कंकन कुंडल नहीं चीन्हते, कथा याद लछमन की ?'
बतरस की ग़ज़लों में सहसा आई टेक भजन की।
दरवाजे पर भय्या आए हमने पा-लागन की।
भाभी मेरे मन की।

चला सिलसिला रस का !
'बैठो, अभी बना लाती हूं लाला, शर्बत खस का।'
'भाभी, शर्बत नहीं चाहिए, है बातों का चसका।'
'लेकिन तुमसे मगज मारना देवर, किसके बस का ?'
भाभी का यह वाक्य हमारे दिल में सिल-सा कसका।
तभी लगाया भाभीजी ने हौले से यूं मसका-
'ओहो, शर्बत नहीं चलेगा ? वाह, तुम्हारा ठसका !'
'कलुआ रे, रसगुल्ले ले आ ! ये ले पत्ता दस का !'
चला सिलसिला रस का।
भाभी जी का लटका !
कलुआ लेकर नोट न जाने कौन गली में भटका ?
बार-बार अब हम लेते थे दरवाजे पर खटका।
बतरस-लोभी चित्त हमारा, रसगुल्लों में अटका।
कुरता छू भाभी जी बोली, 'खूब सिलाया मटका।'
'लेकिन हम तो देख रहे हैं ब्लाउज नरगिस-कट का।'
आंखों-आंखों भाभीजी ने हमको हसंकर हटका।
'ये नरगिस का चक्कर लाला, होता है सकंट का।'
भाभी जी का लटका !

गोपाल प्रसाद व्यास-तुम कहती हो कि नहाऊं मैं

तुम कहती हो कि नहाऊं मैं !
क्या मैंने ऐसे पाप किए,
जो इतना कष्ट उठाऊं मैं ?

क्या आत्म-शुद्धि के लिए ?
नहीं, मैं वैसे ही हूं स्वयं शुद्ध,
फिर क्यों इस राशन के युग में,
पानी बेकार बहाऊं मैं ?

यह तुम्हें नहीं मालूम
डालडा भी मुश्किल से मिलता है,
मैं वैसे ही पतला-दुबला
फिर नाहक मैल छुडाऊं मैं ?

औ' देह-शुद्धि तो भली आदमिन,
कपड़ों से हो जाती है !
ला कुरता नया निकाल
तुझे पहनाकर अभी दिखाऊं मैं !

''मैं कहती हूं कि जनम तुमने
बामन के घर में पाया क्यों ?
वह पिता वैष्णव बनते हैं
उनका भी नाम लजाया क्यों ?''

तो बामन बनने का मतलब है
सूली मुझे चढ़ा दोगी ?
पूजा-पत्री तो दूर रही
उल्टी यह सख्त सजा दोगी ?

गोपाल प्रसाद व्यास-मुझको बुध न कहो तुम

हाय, न बूढ़ा मुझे कहो तुम !
शब्दकोश में प्रिये, और भी
बहुत गालियां मिल जाएंगी
जो चाहे सो कहो, मगर तुम
मरी उमर की डोर गहो तुम !
हाय, न बूढ़ा मुझे कहो तुम !

क्या कहती हो-दांत झड़ रहे ?
अच्छा है, वेदान्त आएगा।
दांत बनाने वालों का भी
अरी भला कुछ हो जाएगा ।

बालों पर आ रही सफेदी,
टोको मत, इसको आने दो।
मेरे सिर की इस कालिख को
शुभे, स्वयं ही मिट जाने दो।

जब तक पूरी तरह चांदनी
नहीं चांद पर लहराएगी,
तब तक तन के ताजमहल पर
गोरी नहीं ललच पाएगी।

झुकी कमर की ओर न देखो
विनय बढ़ रही है जीवन में,
तन में क्या रक्खा है, रूपसि,
झांक सको तो झांको मन में।
अरी पुराने गिरि-श्रृंगों से
ही बहता निर्मल सोता है,
कवि न कभी बूढ़ा होता है।

गोपाल प्रसाद व्यास-साली महिमा

तुम श्लील कहो, अश्लील कहो
चाहो तो खुलकर गाली दो !
तुम भले मुझे कवि मत मानो
मत वाह-वाह की ताली दो !
पर मैं तो अपने मालिक से
हर बार यही वर मांगूंगा-
तुम गोरी दो या काली दो
भगवान मुझे एक साली दो !

सीधी दो, नखरों वाली दो
साधारण या कि निराली दो,
चाहे बबूल की टहनी दो
चाहे चंपे की डाली दो।
पर मुझे जन्म देने वाले
यह मांग नहीं ठुकरा देना-
असली दो, चाहे जाली दो
भगवान मुझे एक साली दो।

वह यौवन भी क्या यौवन है
जिसमें मुख पर लाली न हुई,
अलकें घूंघरवाली न हुईं
आंखें रस की प्याली न हुईं।
वह जीवन भी क्या जीवन है
जिसमें मनुष्य जीजा न बना,
वह जीजा भी क्या जीजा है
जिसके छोटी साली न हुई।

तुम खा लो भले पलेटों में
लेकिन थाली की और बात,
तुम रहो फेंकते भरे दांव
लेकिन खाली की और बात।
तुम मटके पर मटके पी लो
लेकिन प्याली का और मजा,
पत्नी को हरदम रखो साथ,
लेकिन साली की और बात।

कुछ पता तुम्हें है, हिटलर को
किसलिए अग्नि ने छार किया ?
या क्यों ब्रिटेन के लोगों ने
अपना प्रिय किंग उतार दिया ?
ये दोनों थे साली-विहीन
इसलिए लड़ाई हार गए,
वह मुल्क-ए-अदम सिधार गए
यह सात समुंदर पार गए।

किसलिए विनोबा गांव-गांव
यूं मारे-मारे फिरते थे ?
दो-दो बज जाते थे लेकिन
नेहरू के पलक न गिरते थे।
ये दोनों थे साली-विहीन
वह बाबा बाल बढ़ा निकला,
चाचा भी कलम घिसा करता
अपने घर में बैठा इकला।

मुझको ही देखो साली बिन
जीवन ठाली-सा लगता है,
सालों का जीजा जी कहना
मुझको गाली सा लगता है।
यदि प्रभु के परम पराक्रम से
कोई साली पा जाता मैं,
तो भला हास्य-रस में लिखकर
पत्नी को गीत बनाता मैं ?

गोपाल प्रसाद व्यास-पत्नी को परमेश्वर मानों

यदि ईश्वर में विश्वास न हो,
उससे कुछ फल की आस न हो,
तो अरे नास्तिको ! घर बैठे,
साकार ब्रह्‌म को पहचानो !
पत्नी को परमेश्वर मानो !

वे अन्नपूर्णा जग-जननी,
माया हैं, उनको अपनाओ।
वे शिवा, भवानी, चंडी हैं,
तुम भक्ति करो, कुछ भय खाओ।
सीखो पत्नी-पूजन पद्धति,
पत्नी-अर्चन, पत्नीचर्या
पत्नी-व्रत पालन करो और
पत्नीवत्‌ शास्त्र पढ़े जाओ।
अब कृष्णचंद्र के दिन बीते,
राधा के दिन बढ़ती के हैं।
यह सदी बीसवीं है, भाई !
नारी के ग्रह चढ़ती के हैं।
तुम उनका छाता, कोट, बैग,
ले पीछे-पीछे चला करो,
संध्या को उनकी शय्‌या पर
नियमित मच्छरदानी तानो !!
पत्नी को परमेश्वर मानो !

तुम उनसे पहले उठा करो,
उठते ही चाय तयार करो।
उनके कमरे के कभी अचानक,
खोला नहीं किवाड़ करो।
उनकी पसंद के कार्य करो,
उनकी रुचियों को पहचानो,
तुम उनके प्यारे कुत्ते को,
बस चूमो-चाटो, प्यार करो।
तुम उनको नाविल पढ़ने दो,

Saturday 25 April 2015

गोपालप्रसाद व्यास-आराम करो, आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो? 
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो। 
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो। 
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।" 
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो। 
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो। 

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है। 
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है। 
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है। 
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है। 
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो। 
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो। 

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो। 
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो। 
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में। 
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में। 
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ , है मज़ा मूर्ख कहलाने में। 
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में। 

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ। 
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ। 
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ। 
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ। 
मेरी गीता में लिखा हुआ , सच्चे योगी जो होते हैं, 
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं। 

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है। 
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है। 
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है, 
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है। 
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है। 
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है। 

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ। 
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ। 
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं। 
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं। 
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो। 
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो। 

Friday 17 April 2015

खूनी हस्‍ताक्षर - गोपालप्रसाद व्यास

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही
खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में,
लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के
कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”
शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं
आकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को
सर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन
माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में
खून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को
हिंदुस्तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर
खूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए
जो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी-
हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो,
हम अपना रक्त चढाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन,
देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से,
वे अपना रक्त गिराते थे!

फिर उस रक्त की स्याही में,
वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा था
हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने
ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस- गोपालप्रसाद व्यास

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं।
है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।।
अक्सर दुनियाँ के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं।
लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं ।।

यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है।
जो रक्त कणों से लिखी गई,जिसकी जयहिन्द निशानी है।।
प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत भू का उजियारा था । 
पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था।।

यह वीर चक्रवर्ती होगा , या त्यागी होगा सन्यासी।
जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग-युग तक भारतवासी।।
सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था ।
पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था।।

बाँधे जाते इंसान,कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।
काया ज़रूर बाँधी जाती,बाँधे न इरादे जाते हैं।।
वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया।
वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।।

जिस तरह धूर्त दुर्योधन से,बचकर यदुनन्दन आए थे।
जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के,पहरेदार छकाए थे ।।
बस उसी तरह यह तोड़ पींजरा , तोते-सा बेदाग़ गया।
जनवरी माह सन् इकतालिस,मच गया शोर वह भाग गया।।

वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे,ये धूमिल अभी कहानी है।
हमने तो उसकी नयी कथा,आज़ाद फ़ौज से जानी है।।