मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Saturday 20 June 2015

कोकिला कैसे रहती मीन-जयशंकर प्रसाद

बरसते हो तारों के फूल 
छिपे तुम नील पटी में कौन? 
उड़ रही है सौरभ की धूल 
कोकिला कैसे रहती मीन।
चाँदनी धुली हुई हैं आज 
बिछलते है तितली के पंख। 
सम्हलकर, मिलकर बजते साज 
मधुर उठती हैं तान असंख।
तरल हीरक लहराता शान्त 
सरल आशा-सा पूरित ताल। 
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त 
बिछा हैं सेज कमलिनी जाल।
पिये, गाते मनमाने गीत 
टोलियों मधुपों की अविराम। 
चली आती, कर रहीं अभीत 
कुमुद पर बरजोरी विश्राम।
उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय 
अरे अभिलाषाओं की धूल। 
और ही रंग नही लग लाय 
मधुर मंजरियाँ जावें झूल।
विश्व में ऐसा शीतल खेल 
हृदय में जलन रहे, क्या हात! 
स्नेह से जलती ज्वाला झेल 
बना ली हाँ, होली की रात॥
- जयशंकर प्रसाद

Wednesday 6 May 2015

मधुप गुनगुनाकर कह जाता-जयशंकर प्रसाद

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी अपनी,
मुरझा कर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज धनि.


          इस गंभीर अनंत नीलिमा में अस्संख्य जीवन-इतिहास-
          यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास.


तब बही कहते हो-काह डालूं दुर्बलता अपनी बीती !
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे – यह गागर रीती.


          किन्तु कहीं ऐसा ना हो की तुम खली करने वाले-
          अपने को समझो-मेरा रस ले अपनी भरने वाले.


यह विडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं.
भूलें अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊं मैं.


          उज्जवल गाथा कैसे गाऊं मधुर चाँदनी रातों की.
          अरे खिलखिला कार हसते होने वाली उन बाओं की.


मिला कहाँ वो सुख जिसका मैं स्वप्न देख कार जाग गया?
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया.


          जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में.
          अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में.


उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पन्था की.
सीवन को उधेड कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?


          छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूँ?
          क्या ये अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?


सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी समय बही नहीं- थकी सोई है मेरी मौन व्यथा.

Saturday 25 April 2015

जयशंकर प्रसाद-आह ! वेदना मिली विदाई

आह ! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह ! बावली
तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई

Friday 24 April 2015

जयशंकर प्रसाद-सब जीवन बीता जाता है

सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है

समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है

सब जीवन बीता जाता है.

Thursday 16 April 2015

तुमुल कोलाहल कलह में-जय शंकर प्रसाद

मुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन |
विफल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक सी रही तब, मैं मलय की बात रे मन |
चिर विषाद विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर वन की,
मैं उषा-सी ज्योति रेखा, कुसुम विकसित प्रात रे मन |
जहां मरू-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन घाटियों की, मैं सरस बरसात रे मन |
पवन के प्राचीर में रुक,
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व दिन की, मैं कुसुम ऋतु रात रे मन |
चिर निराशा नीरधर से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर से,
मधुप मुख मकरंद मुकुलित, मैं सजल जलजात रे मन |

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती-जयशंकर प्रसाद

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में, सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो


जयशंकर प्रसाद