मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Tuesday 21 April 2015

आरसी प्रसाद सिंह-दिल ही तो है

दिल हमारा लापता है शाम से 
कर रहा है क्या ? गया किस काम से

दर्द ले कर दिल हमारा ले लिया 
हो गए दोनों बड़े अंजाम से

लाश में ही जान अब तो डालिए 
एक भी बाक़ी न क़त्लेआम से

आप हों चाहे न जितनी दूर क्यों ?
जी रहे हम आपके ही नाम से

ज़िंदगी गुज़री मुसीबत से भरी 
मर गए हम तो बहुत आराम से

आरसी प्रसाद सिंह-जब पानी सर से बहता है

तब कौन मौन हो रहता है? 
जब पानी सर से बहता है। 

चुप रहना नहीं सुहाता है, 
कुछ कहना ही पड़ जाता है। 
व्यंग्यों के चुभते बाणों को 
कब तक कोई भी सहता है? 
जब पानी सर से बहता है। 

अपना हम जिन्हें समझते हैं। 
जब वही मदांध उलझते हैं, 
फिर तो कहना पड़ जाता ही, 
जो बात नहीं यों कहता है।
जब पानी सर से बहता है। 

दुख कौन हमारा बाँटेगा 
हर कोई उल्टे डाँटेगा। 
अनचाहा संग निभाने में 
किसका न मनोरथ ढहता है? 
जब पानी सर से बहता है।

आरसी प्रसाद सिंह-जीवन का झरना

यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है। 

कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे? 
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे? 

निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है! 
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है। 

बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता, 
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता। 

लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है। 
तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है। 

निर्झर कहता है, बढ़े चलो! देखो मत पीछे मुड़ कर! 
यौवन कहता है, बढ़े चलो! सोचो मत होगा क्या चल कर? 

चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है ! 
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !

आरसी प्रसाद सिंह-नए जीवन का गीत

मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
चकाचौंध से भरी चमक का जादू तड़ित-समान दे दिया।
मेरे नयन सहेंगे कैसे यह अमिताभा, ऐसी ज्वाला?
मरुमाया की यह मरीचिका? तुहिनपर्व की यह वरमाला?
हुई यामिनी शेष न मधु की, तूने नया विहान दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
अपने मन के दर्पण में मैं किस सुन्दर का रूप निहारूँ?
नव-नव गीतों की यह रचना किसके इंगित पर बलिहारूँ?
मानस का मोती लेगी वह कौन अगोचर राजमराली?
किस वनमाली के चरणों में अर्पित होगी पूजा-थाली?
एक पुष्प के लोभी मधुकर को वसन्त-उद्यान दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
मलयानिल होता, तो मेरे प्राण सुमन-से फूले होते।
पल्लव-पल्लव की डालों पर हौले-हौले झूले होते।
एक चाँद होता, तो सारी रात चकोर बना रह जाता।
किन्तु, निबाहे कैसे कोई लाख-लाख तारों से नाता?
लघु प्रतिमा के एक पुजारी को अतुलित पाषाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
ओ अनन्त करुणा के सागर, ओ निर्बन्ध मुक्ति के दानी।
तेरी अपराजिता शक्ति का हो न सकूँगा मैं अभिमानी।
कैसे घट में सिन्धु समाए? कैसे रज से मिले धराधर।
एक बूँद के प्यासे चातक के अधरों पर उमड़ा सागर।
देवालय की ज्योति बनाकर दीपक को निर्वाण दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
मुँहमाँगा वर देकर तूने मेरा मंगल चाहा होगा।
शायद मैंने भी याचक बन अपना भाग्य सराहा होगा।
इसीलिए, तूने गुलाब को क्या काँटों की सेज सुलाया?
रत्नाकर के अन्तस्तल में दारुण बड़वानल सुलगाया?
अपनी अन्ध वन्दना को क्यों मेरा मर्मस्थान दे दिया?
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

आरसी प्रसाद सिंह-चाँद को देखो

चाँद को देखो चकोरी के नयन से
माप चाहे जो धरा की हो गगन से।

  मेघ के हर ताल पर
  नव नृत्य करता
  राग जो मल्हार
  अम्बर में उमड़ता

आ रहा इंगित मयूरी के चरण से
चाँद को देखो चकोरी के नयन से।

  दाह कितनी
  दीप के वरदान में है
  आह कितनी
  प्रेम के अभिमान में है

पूछ लो सुकुमार शलभों की जलन से
चाँद को देखो चकोरी के नयन से।

  लाभ अपना
  वासना पहचानती है
  किन्तु मिटना
  प्रीति केवल जानती है

माँग ला रे अमृत जीवन का मरण से
चाँद को देखो चकोरी के नयन से
माप चाहे जो धरा की हो गगन से।

Monday 20 April 2015

आरसी प्रसाद सिंह-चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा

चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।
अब न झंझावात है वह अब न वह विद्रोह मेरा।

भूल जाने दो उन्हें, जो भूल जाते हैं किसी को।
भूलने वाले भला कब याद आते हैं किसी को?
टूटते हैं स्वप्न सारे, जा रहा व्यामोह मेरा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

ग्रीष्म के संताप में जो प्राण झुलसे लू-लपट से,
बाण जो चुभते हृदय में थे किसी के छल-कपट से!
अब उन्हीं चिनगारियों पर बादलों ने राग छेड़ा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

जो धधकती थी किसी दिन, शांत वह ज्वालामुखी है।
प्रेम का पीयूष पी कर हो गया जीवन सुखी है।
कालिमा बदली किरण में ; गत निशा, आया सवेरा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।
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