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Saturday 20 June 2015

यह एक दिन-कुमार अंबुज

एक दिन आता है जीवन में एकदम खाली
जिसमें करने के लिए कुछ भी नहीं
चाह कर भी जिसमें नहीं किया जा सकता कुछ
फ्रेम में जड़ा हुआ एक खाली दिन
दीवार पर तसवीर में मुस्कराते किसी भी ईश्वर की तरह व्यर्थ
खालीपन से लबालब भरा हुआ एक दिन
छीनता हुआ एक दिन का साहस
एक दिन की ताकत
एक दिन के समय की संपत्ति
बाहर पत्तियाँ भी नहीं गिर रही हैं
मौसम में मौसम की शिनाख्त नहीं है
दिन ढलान पर से लुढ़क नहीं रहा है
रात हो कर गुज़रने में अभी कई बरस बाकी हैं
आवाजों से आने वाले की पहचान मुश्किल
हो सकता है यह धमाका किसी खुशी में किया गया हो
यह पदचाप मुमकिन है कि महज एक खयाल हो
और यह कराह
कोई हिस्सा हो बच्चों के किसी खेल का
जैसे यह दिन इस जीवन का ही हिस्सा है
एक खाली कैनवास
कुछ बनाने के लिए यह फिर कभी न मिलेगा
मेरी संभव कूदों में से एक कूद को धूल-धूसरित करता
यह एक दिन जा रहा है
इस बीतते जा रहे दिन के सामने मैं एक असहाय दर्शक, बस !
फुटबॉल मैच से उठने वाला शोर भी इसमें नहीं भरा जा सका
एक बच्चे की किलकारी और एक स्त्री की मादक चेष्टा
इस दिन से टकरा कर लौट चुकी है
यह दिन तना हुआ पत्थर की किसी दीवार की तरह
अपने भीतर के खालीपन की रक्षा करता हुआ मुस्तैद
'एक दिन की अन्यमनस्कता भी बूढ़ा कर सकती है आदमी को'
न जाने किसका आप्त-वाक्य है यह -
या मेरा ही कोई सोच अटका हुआ जेहन में
लेकिन मैं इस दिन के खिलाफ मोर्चा नहीं ले पा रहा हँ
इस दिन के खालीपन से परास्त हुआ मैं
इसके नाकुछ वज़न के नीचे दबा पड़ा हूँ
यह दिन मेरी स्मृति में रहेगा इस तरह
कि जिसे न तो उम्र में से घटाया जा सकेगा
और जोड़ कर देखने में होगा एक अपराध

एक सुबह की डायरी-कुमार अंबुज

वह अपनी धुन में किसी पक्षी के साथ नापता हुआ आकाश
उसकी आँखों में आसमान का रंग चमकता विस्तृत नीला
उसकी चाल को धरती का घर्षण जैसे रोकता-सा
काँच के टुकड़ों की आपसी रगड़ का रंगीन संगीत
उठता हुआ निक्कर की जेबों में से
गूँजता हुआ इस दिक् के सन्नाटे में
आँखों के आगे चाकलेट की पारदर्शी पन्नी लगाए
कूदता चलता वह करता खेल अनेक
दूध की लाइन में खड़े व्याकुल अधीर लोगों के बीच
वही था जो बेपरवाह था वह जो असीम था
और तैर रहा था अथाह बचपन की झील में
वही था जो आसपास को देखता हुआ इस तरह
मानो हर चीज़ पर उसका ही अधिकार
जो दूध वाले के मजाक पर देखता उसे क्षमा करता हुआ
थैली को निक्कर की दूसरी जेब में घुसाने के
एक बड़े नाट्य में व्यस्त
वह जो ट्रक की तेजी को परास्त करता
पार करता हुआ सड़क
गली के छोर पर दिखता चपल
एक कौंध
एक झोंका गायब होता हुआ हवाओं के साथ
वह जो इस पुरातन दुनिया को करता हुआ नवीन
और अद्यतन !
वह जो मेरे आज के दिन का प्रारंभ !

इतनी-सी कथा-कुमार अंबुज

वह स्त्री स्टेशन के बाहर खड़ी थी आधी रात
घर लौटने के इंतज़ार में
अचानक हवा चली विषैली
लिखा जाने लगा त्रासदी का एक और अध्याय

प्रश्न यह नहीं था कि वह वापस कैसे लौटेगी,
सही-सलामत लौटेगी इतिहास को पारकर ?
खुल जाएगा किवाड़ ?
बेचैन दस्तकों और दरवाज़ा खुलने के युग के बीच
किन सवालों से जूझेगी ?
जो जली-सी गंध आएगी
सोचेगी क्षमा और प्रेम और करुणा के बारे में
गुस्से में तोहमतें लगाएगी ?

जो कुछ हुआ
वह उसका साक्ष्य है या विषय
पता नहीं धर्मसंसद के निष्कर्ष

कुल जमा इतनी-सी थी यह कथा
पीढ़ियों के सामने
पहला-ईसापूर्व छठी शती का एक भिखु
दूसरा-प्रचारक नवजागरण काल का
तीसरा-सफाई अभियान से बच निकला किशोर
तीनों के सामने विचित्र अंतर्विरोध
ज्ञान की निरीह उजास से बाहर जाकर
चुनौती बनने और खड़े होने का