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Saturday 20 June 2015

यूँ दिल में अरमान बहुत हैं-जगदीश चंद्र ठाकुर

यूँ दिल में अरमान बहुत हैं 
अक्षत कम भगवान बहुत हैं |

हासिल हो तो भी क्या होगा 
फिर भी वे हैरान बहुत हैं |

यहाँ मुखौटे का फैशन है
गुल हैं कम गुलदान बहुत हैं |

शहर नया दस्तूर पुराना 
दर हैं कम दरबान बहुत हैं |

सच बोलोगे, दार मिलेगी 
झूठ कहो, ईनाम बहुत हैं | 

हैं हकीम बीमार आज खुद 
नुस्खे भी नादान बहुत हैं |

सुबह तुम्हारी मुट्ठी में है 
दुनिया में इंसान बहुत हैं |

अपनी इच्छाओं का ही विस्तार है-जगदीश चंद्र ठाकुर

अपनी इच्छाओं का ही विस्तार है
जिंदगी जैसी भी है स्वीकार है |

दीखता है जो हमारे सामने 
वह तो अपना ही रचा संसार है |

एक पत्ता सूख डाली से गिरा
एक आने के लिए तैयार है |

है दिया आनंद फूलों ने जहाँ 
पत्थरों ने भी किया उपकार है |

चाहकर भी कुछ न दे पाया तुझे 
मुझ पे भी मेरा कहाँ अधिकार है |

जिस चिकित्सक ने मुझे चंगा किया 
वह भला क्यों आजकल बीमार है |

लोग जो हैं स्वार्थ में अंधे हुए 
क्या नहीं उनका कोई उपचार है |

काँटों का फूल से मिलन-जगदीश चंद्र ठाकुर

काँटों का फूल से मिलन 
है अजीब ये समीकरण |
बादल के नाम पर आँधियां चलीं
सरसों के खेत में बिजलियाँ गिरीं 
आंसुओं से है भरा चमन 
है अजीब ये समीकरण |
खाली हैं आज साधुओं की झोलियां 
निकल रहीं तिजोरियों से मात्र गोलियां 
बच्चों के सर पे ये कफन 
है अजीब ये समीकरण |
बरगद के पेड़ पर मेढ़क चढे 
सूरज की जगह आज काजल उगे 
नाव और नदी का ये चयन 
है अजीब ये समीकरण |

मैं कभी मंदिर न जाता-जगदीश चंद्र ठाकुर

मैं कभी मंदिर न जाता 
और न चन्दन लगाता,
मंदिरों-से लोग मिल जाते जहां पर 
बस वहीं पर सिर झुकाता
देर थोड़ी बैठ जाता 
मुस्कुराता, गुनगुनाता, गीत गाता |

जिनके होठों पर हमेशा 
प्रेम के हैं फूल खिलते 
देख जिनको हैं हृदय में 
प्रार्थना के दीप जलते 
स्नेह, करुणा से भरी जो आत्मा 
हैं हमारे वास्ते परमात्मा 
मैं कभी गीता न पढता 
और न ही श्लोक रटता
कृष्ण-से कुछ लोग मिल जाते जहां पर 
बस वहीँ पर सिर झुकाता 
देर थोड़ी बैठ जाता 
मुस्कुराता,गुनगुनाता, गीत गाता |

जिनकी आहट से सदा 
मिलती हमें ताजी हवा 
दृष्टि जिनकी उलझनों के 
मर्ज की प्यारी दवा,
इंसान के दिल में जहाँ 
इंसान का सम्मान है 
सच कहूँ मेरे लिए 
वह दृश्य चरों धाम हैं,
मैं न रामायण ही पढता 
और न धुनी रमाता
राम-से कुछ लोग 
मिल जाते जहाँ पर
बस वहीं पर सिर झुकाता 
देर थोड़ी बैठ जाता 
मुस्कुराता, गुनगुनाता, गीत गाता |
वेद की बातें समझ में हैं नहीं आतीं 
चर्चा पुराणों की तसल्ली दे नहीं पातीं
देश –दुनिया के लिए जो जिंदगी 
बस उन्ही के ही लिए ये बंदगी
मैं कभी काशी न जाता 
और न गंगा नहाता 
लोग गंगाजल सदृश मिलते जहाँ पर 
बस वहीं पर सिर झुकाता 
देर थोडी बैठ जाता 
शब्द-गंगा में नहाता 
मुस्कुराता, गुनगुनाता, गीत गाता |