मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Tuesday 2 June 2015

सरलता-ओशो

अगर मां—बाप सिर्फ उतना ही कहें जितना जानते हैं, .और एक शब्द ज्यादा न कहें,
और बच्चों को मुक्त रखें, और उनकी सरल श्रद्धा नष्ट न करें, तो यह सारी दुनिया धार्मिक .हो सकती है। यह दुनिया अधार्मिक नास्तिकों के कारण नहीं है
, स्मरण रखना, यह तुम्हारे थोथे आस्तिकों के कारण अधार्मिक है।
ध्यान देना, सिद्धात मत देना। यह मत कहना कि भगवान है। यह कहना कि शांत बैठने से धीरे — धीरे तुम्हें पता चलेगा
, क्या है और क्या नहीं है। निर्विचार होने से पता चलेगा कि सत्य क्या है। विचार मत देना
, निर्विचार देना। ध्यान देना, सिद्धात मत देना। ध्यान दिया तो धर्म दिया और सिद्धात दिया तो तुमने अधर्म दे दिए। शास्त्र मत देना
, शब्द मत देना,
निःशब्द होने की क्षमता देना। प्रेम देना।
ध्यान और प्रेम अगर दो चीजें तुम दे सको किसी बच्चे को, तो तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। तुमने इस बच्चे की आधारशिला रख दी। इस बच्चे के जीवन में मंदिर बनेगा
,
बड़ा मंदिर बनेगा। इस बच्चे के जीवन के शिखर आकाश में उठेंगे और इसके स्वर्ण—शिखर सूरज की रोशनी में चमकेंगे और चाँद--तारों से बात करेंगें।

Sunday 3 May 2015

असहनीय अशांति और आत्म रूपांतरण-ओशो

आत्म—रूपांतरण, आत्यंतिक क्रांति तो अति पर ही संभव होती है। जब तक हम जीवन की एक शैली के आखिरी छोर पर न पहुंच जाएं, जब तक हम उसकी पीड़ा को पूरा न भोग लें, उसके संताप को पूरा न सह लें, तब तक रूपांतरण नहीं होता।

अशांत अगर कोई पूरा हो जाए, तो छलांग लग सकती है शांति में। लेकिन पूरा अशांत हो जाए, यह शर्त खयाल रहे। आधी अशांति से नहीं चलेगा। और हममें से कोई भी पूरा अशांत नहीं होता; हम थोड़े अशांत होते हैं। जब हम समझते हैं कि हम बहुत अशांत हैं, तब भी हम थोड़े ही अशांत होते हैं। जब हम सोचते हैं कि असहनीय हो गई है दशा, तब भी सहनीय ही होती है, असहनीय नहीं होती। क्योंकि असहनीय का तो अर्थ है कि आप बचेंगे ही नहीं।

जिसको आप असहनीय अशांति कहते हैं, उसे भी आप सह तो लेते ही हैं। प्रियजन मर जाता है, बेटा मर जाता है, मां मर जाती है, पत्नी मर जाती है, पति मर जाता है, असहनीय दुख हम कहते हैं, लेकिन उसे भी हम सह लेते हैं; और हम बच जाते हैं उसके पार भी। दो—चार महीने में घाव भर जाता है, हम फिर पुराने हो जाते हैं; फिर जिंदगी वैसी ही चलने लगती है। हमने कहा था असहनीय, लेकिन वह सहनीय था। अशांति पूरी न थी।

अशांति पूरी होती, तो दो घटनाएं संभव थीं। या तो आप मिट जाते, बचते न, और अगर बचते, तो पूरी तरह रूपांतरित होकर बचते। हर हालत में आप जैसे हैं, वैसे नहीं बच सकते थे। या तो आत्मघात हो जाता, या आत्मा—रूपांतरण हो जाता; पर आप जैसे हैं, वैसे ही बच नहीं सकते थे।

लेकिन देखा जाता है कि सब दुख आते हैं और चले जाते हैं, और आपको वैसा ही छोड़ जाते हैं जैसे आप थे, उसमें रत्तीभर भी भेद नहीं होता। आप वही करते हैं फिर, जो पहले करते थे—वही जीवन, वही चर्या, वही ढंग, वही व्यवहार। थोड़ा—सा धक्का लगता है, फिर आप सम्हल जाते हैं। फिर गाड़ी पुरानी लीक पर चलने लगती है।

आत्महत्या हो जाएगी और या आत्म क्रांति हो जाएगी, दोनों ही स्थिति में आप मिट जाएंगे। अति पर क्रांति घटित होती है। यदि कोई पूरा अशांत हो जाए, तो उसका अर्थ हुआ कि अब और अशांत होने की जगह न बची। अब इसके आगे अशांति में जाने का कोई मार्ग न रहा। आखिरी पड़ाव आ गया। अब गति का कोई उपाय नहीं। इस क्षण क्रांति घट सकती है; इस क्षण आप इस व्यर्थता को समझ सकते हैं। यह अशांत होने का सारा रोग व्यर्थ मालूम पड़ सकता है।

और ध्यान रहे, कोई और तो आपको अशांत करता नहीं, आप ही अशांत होते हैं। यह आपका ही अर्जन है, यह आपका ही लगाया हुआ पौधा है, आपने ही सींचा और बड़ा किया है। ये जो अशांति के फल और फूल लगे हैं, ये आपके ही श्रम के फल हैं। और अगर आप पूरे अशांत हो गए, तो आपको दिखाई पड़ जाएगा कि सब व्यर्थ था, यह पूरा श्रम आत्मघाती था। आप इसे छोड़ दे सकते हैं। कोई और आपको पकड़े हुए नहीं है, और कोई आपको अशांत नहीं कर रहा है।

एक क्षण में जीवन अशांति के मोड़ से शांति की दिशा में गति करता है। एक तो उपाय यह है। लेकिन जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका प्रयोजन दूसरा है।

पहली तो बात यह कि जब आप अशांत हैं, तो मेरा अर्थ पूरी अशांति से नहीं है। आप आधे—आधे हैं। जैसे पानी को हम गरम करें; वह पचास डिग्री पर गरम हो, तो न तो वह भाप बन पाता है और न बर्फ बन पाता है। पानी ही रहता है। सिर्फ गरम होता है। या तो सौ डिग्री तक गरम हो जाए, तो रूपांतरण हो सकता है, पानी छलांग लगा ले, भाप बन जाए। और या शून्य डिग्री के नीचे गिर जाए, तो भी रूपांतरण हो सकता है, पानी समाप्त हो जाए, बर्फ बन जाए। दोनों हालत में पानी खो सकता है, लेकिन अतियों से।

तो जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका मतलब इतना ही है कि जब पानी गरम है, तो बर्फ बनानी मुश्किल होगी। पानी को ठंडा करना होगा, तो बर्फ बन सकती है।

लेकिन दो उपाय हैं। या तो पानी को पूरा गरम कर लें, तो भी पानी खो जाएगा, आप एक नए जगत में प्रवेश कर जाएंगे। या फिर पानी को पूरा ठंडा हो जाने दें, तो भी पानी खो जाएगा और नई यात्रा शुरू हो जाएगी।

अशांति से कूदने के दो उपाय हैं। या तो बिलकुल शांत क्षण आ जाए और या बिलकुल अशांत क्षण आ जाए। आप जहां हैं, वहा से छलांग नहीं लग सकती। या तो पीछे लौटें और अपने को शांत करें या आगे बढ़े और पूरे अशांत हो जाएं।

दोनों की सुविधाएं और दोनों के खतरे हैं। शांत होने की सुविधा तो यह है कि कोई विक्षिप्तता का डर नहीं है। इसलिए अधिक धर्मों ने शांत होने के छोर से ही छलांग लगाने की कोशिश की है। संन्यासियों को कहा गया है, घर—द्वार छोड़ दें, गृहस्थी छोड़ दें, काम—काज छोड़ दें।

यह सब शांत होने की व्यवस्था है। उन परिस्थितियों से हट जाएं, जहां पानी गरम होता है। चले जाएं दूर हिमालय में, जहां कोई गरम करने को न होगा, धीरे— धीरे आप ठंडे हो जाएंगे। हट जाएं उन—उन स्थितियों से, जहां आप उबलने लगते हैं। बार—बार उबलने लगते हैं, उबलने की आदत बन जाती है। हट जाएं उन व्यक्तियों से, जिनके संपर्क में आपको ठंडा होना मुश्किल हो रहा है।

आस्पेंस्की-जागृत मौत-मैं मृत्यु सिखाता हूँ-ओशो


ये ओशो द्वारा रचित मैं मृत्यु सिखाता हूँ पुस्तक का अंश है । ये इस बात को दर्शाता है क़ि लगभग सभी आदमियों की मौत बेहोशी की अवस्था में होती है। यदि ये कोशिश की जाये की जागृत अवस्था में मृत्यु का अवलिंगण हो तो जीव मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है। ओशो  ने ऐसी ही विलक्ष्ण घटना का जिक्र किया है जहाँ पे एक रुसी गणितज्ञ पी डी आस्पेंस्की ने जागृत अवस्था में मृत्यु का आलिंगन करने जी कोशिश की है। प्रस्तुत है किताब का वो अंश:-


"अभी एक आदमी मरा पी डी आस्पेंस्की। वह रूस का एक बड़ा गणितज्ञ था। और मृत्यु के संबंध में इस सदी में सबसे ज्यादा प्रयोग उसी आदमी ने किए हैं। मरने के समय, जब कि वह बुरी तरह बीमार है और चिकित्सकों ने कहा है कि वह बिस्तर से न उठे, तब तीन महीने तक इतना श्रम उसने किया है कि जो अकल्पनीय है। रात—रात भर सोता नहीं है, सफर करता है, चलता रहता है, दौड़ता रहता है, भागता रहता है, और चिकित्सक हैरान हैं। वे कहते हैं, उसे पूर्ण आराम करना चाहिए। उसने अपने सारे निकट मित्रों को बुला लिया है और उसने सब बातचीत बंद कर दी है, लेकिन वह श्रम में लगा हुआ है। और जो मित्र उसके साथ मरते समय तीन महीने रहे हैं, उनका कहना यह है कि हमने अपनी आंखों के सामने पहली दफे मृत्यु को जागे हुए किसी आदमी को लेते हुए देखा। और जब उससे उन्होंने कहा कि चिकित्सक कहते हैं आराम करो, तुम आराम क्यों नहीं कर रहे हो? तो उसने कहा कि मैं सारे दुख देख लेना चाहता हूं। कहीं ऐसा न हो जाए कि मरते वक्त दुख इतना बड़ा हो कि मैं सो जाऊं, बेहोश हो जाऊं। तो मैं उसके पहले वह सब दुख देख लेना चाहता हूं जो कि वह क्षमता पैदा कर दे, वह स्टेमिना दे दे, वह ऊर्जा दे दे कि मृत्यु के समय मैं होश में मर सकूं। तो सब तरह के दुख उसने तीन महीने तक झेलने की कोशिश की।

उसके मित्रों ने लिखा है कि हम जो पूर्ण स्वस्थ थे, हम उसके साथ थक जाते थे, लेकिन उसे हमने थकते नहीं देखा। और चिकित्सक कह रहे हैं कि उसको बिलकुल ही विश्राम करना चाहिए, नहीं तो बहुत नुकसान हो जाएगा। जिस रात वह मरा है, पूरी रात टहलता रहा है। एक पैर उठाने की

उसकी ताकत नहीं है। डाक्टर उसकी जांच करके कहते हैं कि एक पैर उठाने की ताकत उसमें नहीं है, लेकिन वह रात भर चलता रहा है। वह कहता है कि मैं चलते —चलते ही मरना चाहता हूं। कहीं बैठे हुए मरूं और बेहोश न हो जाऊं, कहीं सोया हुआ मरूं और बेहोश न हो जाऊं। और चलते —चलते चलते उसने खबर दी है अपने मित्रों को कि बस इतनी देर और। यह दस कदम मैं और उठा पाऊंगा, बस। डूबा जा रहा है सब। लेकिन आखिरी कदम भी मैं उठाऊंगा, क्योंकि मैं आखिरी क्षण तक कुछ करते ही रहना चाहता हूं ताकि मैं पूरा जागा रहूं। ऐसा न हो कि मैं विश्राम में सो जाऊं।

वह आखिरी कदम चलते हुए मरा है। कम ही लोग चलते हुए मरे हैं जमीन पर। वह चलता हुआ ही गिरा है। यानी वह गिरा ही तब है, जब मौत आ गई। और आखिरी कदम के पहले उसने कहा है कि बस अब यह आखिरी कदम है और अब मैं गिर जाऊंगा। लेकिन मैं तुम्हें कहे जाता हूं कि शरीर छूट गया है बहुत पहले। अब तुम देखोगे कि शरीर छूट रहा है, लेकिन मैं बहुत देर से देख रहा हूं कि शरीर छूट गया है और मैं हूं। संबंध टूट गए हैं और मैं भीतर हूं। इसलिए अब शरीर ही गिरेगा, मेरे गिरने का कोई उपाय नहीं है। और मरते क्षण में उसकी आंखों में जो चमक, उसमें जो शांति, उसमें जो आनंद, उसमें जो दूसरी दुनिया के द्वार पर खड़े हो जाने का प्रकाश है, वह उसके मित्रों ने अनुभव किया है।"

Saturday 2 May 2015

मैं मृत्यु सिखाता हूँ-स्वामी राम-ओशो

स्वामी राम अमरीका गए तो वहां के लोग उनकी बात समझने में बड़ी कठिनाई में पडे शुरू—शुरू में। अमरीका का प्रेसिडेंट उनसे मिलने आया था तो वह भी बड़ी मुश्किल में पड़ा और उसने कहा, आप कैसी भाषा बोलते हैं? क्योंकि राम थर्ड पर्सन में बोलते थे। वह ऐसा नहीं कहते थे कि मुझे भूख लगी है। वह कहते थे कि राम को बड़ी भूख लगी है—। वह ऐसा नहीं कहते थे कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है। वह कहते थे, राम के सिर में बहुत दर्द हो रहा है। तो पहले तो लोग बड़ी मुश्किल में पड़े कि वह कह क्या रहे हैं। वह कहते थे कि रात राम को बड़ी सर्दी लगती रही। तो कोई उनसे पूछता कि किसकी आप बात कर रहे हैं? किसके संबंध में कह रहे हैं? तो वह कहते कि राम के संबंध में। वे पूछते, कौन राम? तो वह कहते, यह राम। इसको रात बड़ी सर्दी लगती रही और हम बडे हंसते रहे कि देखो राम, कैसी सर्दी झेल रहे हो। और वह कहते कि रास्ते पर राम जा रहे थे, कुछ लोग गालियां देने लगे, तो हम खूब हंसने लगे कि देखो राम, कैसी गालियां पड़ी। मान खोजने निकलोगे तो अपमान होगा ही। लोग कहते, लेकिन आप बात किसकी कर रहे हैं? किसके संबंध में कह रहे हैं? कौन राम? तो वह कहते, यह राम।

छोटे—छोटे जीवन के दुखों से प्रयोग शुरू करना पड़ेगा। जीवन में रोज छोटे दुख आते हैं, रोज प्रतिपल वे खड़े हैं। और दुख ही क्यों, सुख से भी प्रयोग करना पड़ेगा। क्योंकि दुख में जागना उतना कठिन नहीं है, जितना सुख में जागना कठिन है। यह अनुभव करना बहुत कठिन नहीं है कि सिर अलग है और उसमें दर्द हो रहा है। लेकिन यह अनुभव करना और भी कठिन है कि शरीर अलग है और स्वास्थ्य का जो रस आ रहा है, वह भी अलग है, वह भी मैं नहीं हूं। सुख में दूर होना और भी कठिन है, क्योंकि सुख में हम पास होना चाहते हैं, और पास होना चाहते हैं; दुख में तो हम दूर होना ही चाहते हैं। यानी कि दुख में तो यह पक्का पता चल जाए कि दुख दूर है, तो यह हमारी इच्छा भी है कि दुख दूर हो। तो हम को यह पता चल जाए तो दुख से हमारा छुटकारा हो जाए।

तो दुख में भी जागने के प्रयोग करने पड़ेंगे और सुख में भी जायाने के प्रयोग करने पड़ेंगे। और इन प्रयोगों में जो उतरता है, वह कई बार स्वेच्छा से दुख वरण करके भी प्रयोग कर सकता है। सारी तपश्चर्या का मूल रहस्य इतना ही है। वह स्वेच्छा से दुख को वरण करके किया गया प्रयोग है।

मैं मृत्यु सिखाता हूँ-ओशो

Sunday 19 April 2015

ओशो-भविष्य और अतीत

मैंने सुना है, एक वृद्ध व्यक्ति हवाईजहाज से न्यूयार्क जा रहा था. बीच के एक एयरपोर्ट पर एक युवक भी उसमें सवार हुआ. उस युवक के बैग को देखकर लगता था कि वह शायद किसी इंश्योरेंस कंपनी का एक्जीक्यूटिव था. युवक को उस वृद्ध व्यक्ति के पास की सीट मिली. 

कुछ देर चुपचाप बैठे रहने के बाद उसने वृद्ध से पूछा, “सर, आपकी घड़ी में कितना समय हुआ है?”
वृद्ध कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “माफ़ करें, मैं नहीं बता सकता”.
युवक ने कहा, “क्या आपके पास घड़ी नहीं है?”
वृद्ध ने कहा, “घड़ी तो है, लेकिन मैं थोड़ा आगे का भी विचार कर लेता हूं, तभी कुछ करता हूं. अभी तुम पूछोगे ‘कितना बजा है’ और मैं घड़ी में देखकर बता दूगा. फिर हम दोनों के बीच बातचीत शुरु हो जाएगी. फिर तुम पूछोगे, ‘आप कहां जा रहे हैं’?. मैं कहूंगा, न्यूयार्क जा रहा हूं. तुम कहोगे, ‘मैं भी जा रहा हूं. आप किस मोहल्ले में रहते हैं’. तो मैं अपना मोहल्ला बताऊंगा. संकोचवश मुझे तुमसे कहना पड़ेगा कि अगर कभी वहां आओ तो मेरे यहाँ भी आ जाना. मेरी लड़की जवान और सुन्दर है. तुम घर आओगे, तो निश्चित ही उसके प्रति आकर्षित हो जाओगे. तुम उससे फिल्म देखने चलने के लिए कहोगे और वह भी राजी हो जाएगी. और एक दिन यह मामला इतना परवान चढ़ जाएगा कि मुझे विचार करना पड़ेगा कि मैं अपनी लड़की की शादी एक बीमा एजेंट से करने के लिए हामी भरूँ या नहीं क्योंकि मुझे बीमा एजेंट बिलकुल भी पसंद नहीं आते. इसलिए कृपा करो और मुझसे समय मत पूछो”
हम सभी इस आदमी पर हंस सकते हैं लेकिन हम सब इसी तरह के आदमी हैं. हमारा चित्त प्रतिपल वर्तमान से छिटक जाता है और भविष्य में उतर जाता है. और भविष्य के संबंध में आप कुछ भी सोचें, सब कुछ ऐसा ही बचकाना और व्यर्थ है, क्योंकि भविष्य कुछ है ही नहीं. जो कुछ भी आप सोचते हैं वह सब कल्पना मात्र ही है. जो भी आप सोचेंगे, वह इतना ही झूठा और व्यर्थ है जैसे इस आदमी का इतनी छोटी सी बात से इतनी लंबी यात्रा पर कूद जाना. इसका चित्त हम सबका चित्त है.
हम वर्तमान पर अपनी पूरी पकड़ से टिकते नहीं हैं और भविष्य या अतीत में कूद जाते हैं. जो क्षण हमारे सामने मौजूद है उसमें हम मौजूद नहीं हो पाते, लेकिन इसी क्षण की सत्ता है, वही वास्तविक है. अतीत और भविष्य इन दोनों के बंधनों में मनुष्य की चेतना वर्तमान से अपरिचित रह जाती है. अतीत और भविष्य दोनों मनुष्य की ईजाद हैं. जगत की सत्ता में उनका कोई भी स्थान नहीं, उनका कोई भी अस्तित्व नहीं.
भविष्य और अतीत कल्पित समय हैं, स्यूडो टाइम हैं, वास्तविक समय नहीं. वास्तविक समय तो केवल वर्तमान का क्षण है. वर्तमान के इस क्षण में जो जीता है, वह सत्य तक पहुंच सकता है, क्योंकि वर्तमान का क्षण ही द्वार है. जो अतीत और भविष्य में भटकता है, वह सपने देख सकता है, स्मृतियों में खो सकता है, लेकिन सत्य से उसका साक्षात कभी भी संभव नहीं है.



ओशो-निन्यानवे का फेर

एक सम्राट का एक नौकर था, नाई था उसका। वह उसकी मालिश करता, हजामत बनाता। सम्राट बड़ा हैरान होता था कि वह हमेशा प्रसन्न, बड़ा आनंदित, बड़ा मस्त! उसको एक रुपया रोज मिलता था। बस, एक रुपया रोज में वह खूब खाता-पीता, मित्रों को भी खिलाता-पिलाता। सस्ते जमाने की बात होगी। रात जब सोता तो उसके पास एक पैसा न होता; वह निश्चिन्त सोता। सुबह एक रुपया फिर उसे मिल जाता मालिश करके। वह बड़ा खुश था! इतना खुश था कि सम्राट को उससे ईर्ष्या होने लगी। सम्राट भी इतना खुश नहीं था। खुशी कहां! उदासी और चिंताओं के बोझ और पहाड़ उसके सिर पर थे। उसने पूछा नाई से कि तेरी प्रसन्नता का राज क्या है? उसने कहा, मैं तो कुछ जानता नहीं, मैं कोई बड़ा बुद्धिमान नहीं। लेकिन, जैसे आप मुझे प्रसन्न देख कर चकित होते हो, मैं आपको देख कर चकित होता हूं कि आपके दुखी होने का कारण क्या है? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है और मैं सुखी हूँ; आपके पास सब है, और आप सुखी नहीं! आप मुझे ज्यादा हैरानी में डाल देते हैं। मैं तो प्रसन्न हूँ, क्योंकि प्रसन्न होना स्वाभाविक है, और होने को है ही क्या?

वजीर से पूछा सम्राट ने एक दिन कि इसका राज खोजना पड़ेगा। यह नाई इतना प्रसन्न है कि मेरे मन में ईर्ष्या की आग जलती है कि इससे तो बेहतर नाई ही होते। यह सम्राट हो कर क्यों फंस गए? न रात नींद आती, न दिन चैन है; और रोज चिंताएं बढ़ती ही चली जाती हैं। घटता तो दूर, एक समस्या हल करो, दस खड़ी हो जाती हैं। तो नाई ही हो जाते।


वजीर ने कहा, आप घबड़ाएं मत। मैं उस नाई को दुरुस्त किए देता हूँ।


वजीर तो गणित में कुशल था। सम्राट ने कहा, क्या करोगे? उसने कहा, कुछ नहीं। आप एक-दो-चार दिन में देखेंगे। वह एक निन्यानबे रुपये एक थैली में रख कर रात नाई के घर में फेंक आया। जब सुबह नाई उठा, तो उसने निन्यानबे गिने, बस वह चिंतित हो गया। उसने कहा, बस एक रुपया आज मिल जाए, तो आज उपवास ही रखेंगे, सौ पूरे कर लेंगे!


बस, उपद्रव शुरू हो गया। कभी उसने इकट्ठा करने का सोचा न था, इकट्ठा करने की सुविधा भी न थी। एक रुपया मिलता था, वह पर्याप्त था जरूरतों के लिए। कल की उसने कभी चिंता ही न की थी। ‘कल’ उसके मन में कभी छाया ही न डालता था; वह आज में ही जीया था। आज पहली दफा ‘कल’ उठा। निन्यानबे पास में थे, सौ करने में देर ही क्या थी! सिर्फ एक दिन तकलीफ उठानी थी कि सौ हो जाएंगे। उसने दूसरे दिन उपवास कर दिया। लेकिन, जब दूसरे दिन वह आया सम्राट के पैर दबाने, तो वह मस्ती न थी, उदास था, चिंता में पड़ा था, कोई गणित चल रहा था। सम्राट ने पूछा, आज बड़े चिंतित मालूम होते हो? मामला क्या है?


उसने कहा: नहीं हजूर, कुछ भी नहीं, कुछ नहीं सब ठीक है।


मगर आज बात में वह सुगंध न थी जो सदा होती थी। ‘सब ठीक है’--ऐसे कह रहा था जैसे सभी कहते हैं, सब ठीक है। जब पहले कहता था तो सब ठीक था ही। आज औपचारिक कह रहा था।


सम्राट ने कहा, नहीं मैं न मानूंगा। तुम उदास दिखते हो, तुम्हारी आंख में रौनक नहीं। तुम रात सोए ठीक से?


उसने कहा, अब आप पूछते हैं तो आपसे झूठ कैसे बोलूं! रात नहीं सो पाया। लेकिन सब ठीक हो जाएगा, एक दिन की बात है। आप घबड़ाएं मत।


लेकिन वह चिंता उसकी रोज बढ़ती गई। सौ पूरे हो गए, तो वह सोचने लगा कि अब सौ तो हो ही गए; अब धीरे-धीरे इकट्ठा कर लें, तो कभी दो सौ हो जाएंगे। अब एक-एक कदम उठने लगा। वह पंद्रह दिन में बिलकुल ही ढीला-ढाला हो गया, उसकी सब खुशी चली गई। सम्राट ने कहा, अब तू बता ही दे सच-सच, मामला क्या है? मेरे वजीर ने कुछ किया?


तब वह चैंका। नाई बोला, क्या मतलब? आपका वजीर...? अच्छा, तो अब मैं समझा। अचानक मेरे घर में एक थैली पड़ी मिली मुझे--निन्यानबे रुपए। बस, उसी दिन से मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। निन्यानबे का फेर!

-ओशो
अष्टावक्र: महागीता भाग-2
प्रवचन 14 से संकलित