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Saturday 25 April 2015

रवीन्द्रनाथ ठाकुर-मुझे झुका दो, मुझे झुका दो

मुझे झुका दो,मुझे झुका दो 
अपने चरण तल में,
करो मन विगलित, जीवन विसर्जित
नयन जल में.

अकेली हूँ मैं अहंकार के
उच्च शिखर पर-
माटी कर दो पथरीला आसन,
तोड़ो बलपूर्वक.
मुझे झुका दो,मुझे झुका दो 
अपने चरण तल में,

किस पर अभिमान करूँ
व्यर्थ जीवन में
भरे घर में शून्य हूँ मैं
बिन तुम्हारे.

दिनभर का कर्म डूबा मेरा
अतल में अहं की,
सांध्य-वेला की पूजा भी
हो न जाए विफल कहीं.

मुझे झुका दो,मुझे झुका दो 
अपने चरण तल में.

रवीन्द्रनाथ ठाकुर-मेरा मस्तक अपनी चरण्ढूल तले नत कर दो

मेरा मस्तक अपनी चरण्ढूल तले नत कर दो
मेरा सारा अहंकार मेरे अश्रुजल में डुबो दो।

अपने मिथ्या गौरव की रक्षा करता
मैं अपना ही अपमान करता रहा,
अपने ही घेरे का चक्कर काट-काट
मैं प्रतिपल बेदम बेकल होता रहा,
मेरा सारा अहंकार मेरे अश्रुजल में डुबो दो।

अपने कामों में मैं अपने प्रचार से रहूँ दूर
मेरे जीवन द्वारा तुम अपनी इच्छा पूरी करो, हे पूर्ण!

मैं याचक हूँ तुम्हारी चरम शांति का
अपने प्राणों में तुम्हारी परम कांति का,
अपने हृदय-कमल दल में ओट मुझे दे दो,
मेरा सारा अहंकार मेरे अश्रुजल में डुबो दो।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रणजीत साहा

रबीन्द्रनाथ टैगोर-चल तू अकेला

तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला,
जब सबके मुंह पे पाश..
ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश,
हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय!
तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर,
मनका गाना गूंज तू अकेला!
जब हर कोई वापस जाय..
ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय..
कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय...