मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Wednesday 6 May 2015

प्रथम रश्मि-सुमित्रानंदन पंत

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊँघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।

शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।

स्नेह-हीन तारों के दीपक,
श्वास-शून्य थे तरु के पात,
विचर रहे थे स्वप्न अवनि में
तम ने था मंडप ताना।
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना!

Saturday 25 April 2015

सुमित्रानंदन पंत-स्वप्न बंधन

बाँध लिया तुमने प्राणों को फूलों के बंधन में
एक मधुर जीवित आभा सी लिपट गई तुम मन में!
बाँध लिया तुमने मुझको स्वप्नों के आलिंगन में!

तन की सौ शोभाएँ सन्मुख चलती फिरती लगतीं
सौ-सौ रंगों में, भावों में तुम्हें कल्पना रँगती,
मानसि, तुम सौ बार एक ही क्षण में मन में जगती!

तुम्हें स्मरण कर जी उठते यदि स्वप्न आँक उर में छवि,
तो आश्चर्य प्राण बन जावें गान, हृदय प्रणयी कवि?
तुम्हें देख कर स्निग्ध चाँदनी भी जो बरसावे रवि!

तुम सौरभ-सी सहज मधुर बरबस बस जाती मन में,
पतझर में लाती वसंत, रस-स्रोत विरस जीवन में,
तुम प्राणों में प्रणय, गीत बन जाती उर कंपन में!

तुम देही हो? दीपक लौ-सी दुबली कनक छबीली,
मौन मधुरिमा भरी, लाज ही-सी साकार लजीली,
तुम नारी हो? स्वप्न कल्पना सी सुकुमार सजीली ?

तुम्हें देखने शोभा ही ज्यों लहरी सी उठ आई,
तनिमा, अंग भंगिमा बन मृदु देही बीच समाई!
कोमलता कोमल अंगों में पहिले तन घर पाई!

सुमित्रानंदन पंत-सुख-दुख

मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन 
!
यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !

Friday 17 April 2015

ग्राम देवता-सुमित्रानंदन पंत

राम राम,
हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,
शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,
वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम।

तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ,
मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;
शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट, गणपति वरिष्ठ,
वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ।

पिक वयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,
नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित।
प्रावृट्‍ में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,
मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित!

शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,
वेणी में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित।
हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,
बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित।

अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,
नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन!
पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन
चिर मोह मुक्त कर दिया, देव! तुमने यह जन!

राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढ़ि धाम!
तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत्‌ एक याम,
जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,
शिक्षक तुम, दस वर्षों से मैं सेवक, प्रणाम।

कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु,--दुस्तर अपार,
कल्पना पुत्र मैं, भावी द्रष्टा, निराधार,
सौन्दर्य स्वप्नचर,-- नीति दंडधर तुम उदार,
चिर परम्परा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार।

दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,
जन मर्यादा का स्रोत शून्य चिर अंध कूप,
जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,
तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप!

यह वही अवध! तुलसी की संस्कृति का निवास!
श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास!
अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास!
वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास!!

ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम!
संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम!
आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम!
यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति! राम राम!!

श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,
पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;
कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,
जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास!

पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,
थी रुद्रचरों से कुंठित कृषि युग की उन्नति ।
श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,
जीवित कर गए अहल्या को, थे सीतापति!

वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,
वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;
बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,
वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित।

तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,
तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित।
खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,
जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित!

गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन 
कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन।
जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,
संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण!

उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत्‌ प्रचलित,
बन गईं चिरंतन रीति नीतियाँ, -- स्थितियाँ मृत।
गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,
तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित।

अति-मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,
मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद।
जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,
विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद।

तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,
ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्र हस्त बलमय।
अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,
सामंत मान अब व्यर्थ,-- समृद्ध विश्व अतिशय।

अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,
गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;
देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,
अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय।

राम राम,
हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।
शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हें सविनय प्रणाम।
विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम
तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम!

पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ' साधु, संत
दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ।
जो था, जो है, जो होगा,--सब लिख गए ग्रंथ,
विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र।

युग युग से जनगण, देव! तुम्हारे पराधीन,
दारिद्र्य दुःख के कर्दम में कृमि सदृश लीन!
बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,
तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन!

जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,
माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;
वे चिर निवृत्ति के भोगी,--त्याग विराग विहित,
निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित!

वे देव भाव के प्रेमी,--पशुओं से कुत्सित,
नैतिकता के पोषक,-- मनुष्यता से वंचित,
बहु नारी सेवी,- - पतिव्रता ध्येयी निज हित,
वैधव्य विधायक,-- बहु विवाह वादी निश्चित।

सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,
संघर्षण विमुख, अटल उनको विधि का विधान।
जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हें ध्यान,
मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान।

राम राम,
हे ग्राम देव, लो हृदय थाम,
अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग में धूम धाम।
उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,
तुम रूढ़ि रीति की खा अफ़ीम, लो चिर विराम!

यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,
यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण।
युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण
मानवता में मिल रहे,-- ऐतिहासिक यह क्षण!

नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,
राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय।
जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सहृदय,
हिन्दु, ईसाई, मुसलमान,--मानव निश्चय।

मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,
संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थीं पीड़ित।
गत देश काल मानव के बल से आज विजित,
अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित।

छायाएँ हैं संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,
वह केन्द्र, परिस्थितियों के गुण उसमें बिम्बित।
मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित
अब नव संस्कृति के वसनों से होगी भूषित।

विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत
जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत।
बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत
नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत।

राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढ़िधाम!
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,
जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,
शिक्षक हो तुम, मैं शिष्य, तुम्हें शत शत प्रणाम।

रचनाकाल: जनवरी’ ४०