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Wednesday 22 April 2015

अज़हर' इनायती-मैं समंदर था मुझे चैन से

मैं समंदर था मुझे चैन से रहने न दिया
ख़ामुशी से कभी दरियाओं ने बहने न दिया.

अपने बचपन में जिसे सुन के मैं सो जाता था
मेरे बच्चों ने वो क़िस्सा मुझे कहने न दिया.

कुछ तबीयत में थी आवारा मिज़ाजी शामिल
कुछ बुज़ुर्गों ने भी घर में मुझे रहने न दिया.

सर-बुलंदी ने मेरी शहर-ए-शिकस्ता में कभी
किसी दीवार को सर पर मेरे ढहने न दिया.

ये अलग बात के मैं नूह नहीं था लेकिन
मैं ने किश्ती को ग़लत सम्त में बहने न दिया.

बाद मेरे वही सरदार-ए-क़बीला था मगर
बुज़-दिली ने उसे इक वार भी सहने न दिया.

अज़हर' इनायती-किताबें जब कोई पढ़ता नहीं था

किताबें जब कोई पढ़ता नहीं था
फ़ज़ा में शोर भी इतना नहीं था.

अजब संजीदगी थी शहर भर में
के पागल भी कोई हँसता नहीं था.

बड़ी मासूम सी अपनाइयत थी
वो मुझसे रोज़ जब मिलता नहीं था.

जवानों में तसादुम कैसे रुकता
क़बीले में कोई बूढ़ा नहीं था.

पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
मगर माहौल ज़हरीला नहीं था.

सभी कुछ था ग़ज़ल में उस की 'अज़हर'
बस इक लहजा मेरे जैसा नहीं था.