मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Saturday 25 April 2015

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरोऔध-एक तिनका है बहुत तेरे लिए

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध-फूल और काँटा

हैं जनम लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता।
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता।।

मेह उन पर है बरसता एक-सा,
एक-सी उन पर हवाएं हैं बहीं।
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक-से होते नहीं।।

छेद कर कांटा किसी की उंगलियां,
फाड़ देता है किसी का वर वसन।
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भौंरें का है बेध देता श्याम तन।।

फूल लेकर तितलियों को गोद में,
भौंरें को अपना अनूठा रस पिला।
निज सुगंधों औ निराले रंग से,
है सदा देता कली जी की खिला।।

Sunday 19 April 2015

निर्मम संसार-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वायु के मिस भर भरकर आह ।
ओस मिस बहा नयन जलधार ।
इधर रोती रहती है रात ।
छिन गये मणि मुक्ता का हार ।।१।।

उधर रवि आ पसार कर कांत ।
उषा का करता है शृंगार ।
प्रकृति है कितनी करुणा मूर्ति ।
देख लो कैसा है संसार ।।२।।

सरिता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किसे खोजने निकल पड़ी हो।
जाती हो तुम कहाँ चली।
ढली रंगतों में हो किसकी।
तुम्हें छल गया कौन छली।।1।।

क्यों दिन–रात अधीर बनी–सी।
पड़ी धरा पर रहती हो।
दु:सह आतप शीत–वात सब
दिनों किस लिये सहती हो।।2।।

कभी फैलने लगती हो क्यों।
कृश तन कभी दिखाती हो।
अंग–भंग कर–कर क्यों आपे
से बाहर हो जाती हो।।3।।

कौन भीतरी पीड़ाएँ।
लहरें बन ऊपर आती हैं।
क्यों टकराती ही फिरती हैं।
क्यों काँपती दिखाती है।।4।।

बहुत दूर जाना है तुमको
पड़े राह में रोड़े हैं।
हैं सामने खाइयाँ गहरी।
नहीं बखेड़े थोड़े हैं।।5।।

पर तुमको अपनी ही धुन है।
नहीं किसी की सुनती हो।
काँटों में भी सदा फूल तुम।
अपने मन के चुनती हो।।6।।

उषा का अवलोक वदन।
किस लिये लाल हो जाती हो।
क्यों टुकड़े–टुकड़े दिनकर की।
किरणों को कर पाती हो।।7।।

क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।
उर में उठती है ज्वाला।
क्यों समीर के लगे तुम्हारे
तन पर पड़ता है छाला।।8।।

Friday 17 April 2015

कर्मवीर / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’


देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं 
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं 
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं 
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं 
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले 
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले । 

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही 
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही 
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही 
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही 
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं 
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं । 

जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं 
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं 
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं 
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं 
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए 
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए । 

व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर 
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर 
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर 
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट 
ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं 
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।

Thursday 16 April 2015

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध/माता पिता

उसके ऐसा है नहीं अपनापन में आन।
पिता आपही अवनि में हैं अपना उपमान।1।

मिले न खोजे भी कहीं खोजा सकल जहान।
माता सी ममतामयी पाता पिता समान।2।

जो न पालता पिता क्यों पलना सकता पाल।
माता के लालन बिना लाल न बनते लाल।3।

कौन बरसता खेह पर निशि दिन मेंह-सनेह।
बिना पिता पालन किये पलती किस की देह।4।

छाती से कढ़ता न क्यों तब बन पय की धार।
जब माता उर में उमग नहीं समाता प्यार।5।

सुत पाता है पूत पद पाप पुंज को भूँज।
माता पद-पंकज परस पिता कमल पग पूज।6।

वे जन लोचन के लिए सके न बन शशि दूज।
पूजन जोग न जो बने माता के पग पूज।7।

जो होते भू में नहीं पिता प्यार के भौन।
ललक बिठाता पूत को नयन पलक पर कौन।8।

जो होवे ममतामयी प्रीति पिता की मौन।
प्यारा क्या सुत को कहे तो दृग तारा कौन।9।

ललक ललक होता न जो पिता लालसा लीन।
बनता सुत बरजोर तो कोर कलेजे की न।10।