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Monday 27 April 2015

द्रोणाचार्य | कविता - डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

तुम्हीं ने-
‘अर्जुन' को सर्वश्रेष्ठ ‘धनुर्धर'
की संज्ञा दी थी
और
‘एकलब्य' का अंगूठा मांगकर
अपनी जीत
सुनिश्चित किया था।
तुम-
आज के परिवेश में भी
ठीक उसी तरह हो
जैसे-
द्वापर में ‘महाभारत' के ‘द्रोण'।।
यह भी सुनिश्चित है कि-
जीत तुम्हारी ही होगी
भले ही तुम
हारने वाले के पक्षधर हो।
तुम-
कलयुगी मानव हो
फिर भी-
सतयुगी घोषणाएँ करते हो।।
नित्य के चीत्कार एवं चिग्घाड़ों को
नहीं सुनते हो।
तुम-
सब कुछ जानते हुए भी
अनजान बने रहते हो।
‘अश्वत्थामा' मारा गया
यह तुम लोगों को
समझा देते हो।
इस कूटनीति के सहारे तुम
जीत जाते हो
वही जीत
जिसके लिए तुमने
‘कौरवों' का साथ
देने की स्वीकृति दी।।
तुम-
इस हार को
अस्वीकार भी कर सकते हो,
लेकिन जीतना
तुम्हारी नियति बन चुकी है,
इसलिए-
हर बार किसी न किसी
कर्ण का कवच
‘कुरूक्षेत्र' में
तुम्हारी रक्षा का प्रमाण
बन जाता है।