मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Sunday 3 May 2015

वस्तु बड़ा कि भगवान-रामकृष्ण परमहंस

किसी धनी भक्त ने एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस को एक कीमती दुशाला भेंट में दिया। स्वामीजी ऐसी वस्तुओं के शौकीन नहीं थे लेकिन भक्त के आग्रह पर उन्होंने भेंट स्वीकार कर ली. उस दुशाला को वह कभी चटाई की तरह बिछाकर उसपर लेट जाते थे कभी उसे कम्बल की तरह ओढ़ लेते थे.

दुशाले का ऐसा उपयोग एक सज्जन को ठीक नहीं लगा। उसने स्वामीजी से कहा – “यह तो बहुत मूल्यवान दुशाला है. इसका बहुत जतन से प्रयोग करना चाहिए. ऐसे तो यह बहुत जल्दी ख़राब हो जायेगी!”
परमहंस ने सहज भाव से उत्तर दिया – “जब सभी प्रकार की मोह-ममता को छोड़ दिया है तो इस कपड़े से कैसा मोह करूँ? क्या अपना मन भगवान की और से हटाकर इस तुच्छ वस्तु में लगाना उचित होगा? ऐसी छोटी वस्तु की चिंता करके अपना ध्यान बड़ी बात से हटा देना कहाँ की बुद्धिमानी है?”

ऐसा कहकर उन्होंने दुशाले के एक कोने को पास ही जल रहे दिए की लौ से छुआकर थोडा सा जला दिया और उस सज्जन से कहा – “लीजिये, अब न तो यह दुशाला मूल्यवान रही और न सुन्दर। अब मेरे मन में इसे सहेजने की चिंता कभी पैदा नहीं होगी और मैं अपना सारा ध्यान भगवान् की और लगा सकूँगा.”
वे सज्जन निरुत्तर हो गए. परमहंस ने भक्तों को समझाया कि सांसारिक वस्तुओं से मोह-ममता जितनी कम होगी, सुखी जीवन के उतना ही निकट पहुंचा जा सकेगा।

Saturday 18 April 2015

प्रेरक प्रसंग-1/रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर में पुजारी की नौकरी मिली। बीस रुपये वेतन तय किया गया जो उस समय के लिए पर्याप्त था। लेकिन पंद्रह दिन ही बीते थे कि मंदिर कमेटी के सामने उनकी पेशी हो गई और कैफियत देने के लिए कहा गया। दरअसल एक के बाद एक अनेक शिकायतें उनके विरुद्ध कमेटी तक पहुंची थीं। किसी ने कहा कि यह कैसा पुजारी है जो खुद चखकर भगवान को भोग लगाता है। फूल सूंघ कर भगवान के चरणों में अर्पित करता है। पूजा के इस ढंग पर कमेटी के सदस्यों को बहुत आश्चर्य हुआ था। जब रामकृष्ण उनके पास पहुंचे तो एक सदस्य ने पूछा-यह कहां तक सच है कि तुम फूल सूंघ कर देवता पर चढ़ाते हो?

रामकृष्ण परमहंस ने सहज भाव से जवाब दिया- मैं बिना सूंघे भगवान पर फूल क्यों चढ़ाऊं? पहले देख लेता हूं कि उस फूल से कुछ सुगंध भी आ रही है या नहीं?

फिर दूसरी शिकायत रखी गई- सुनने में आया है कि भगवान को भोग लगाने से पहले खुद अपना भोग लगा लेते हो?

रामकृष्ण ने फिर उसी भाव से जवाब दिया- मैं अपना भोग तो नहीं लगाता पर मुझे अपनी मां की याद है कि वे भी ऐसा ही करती थीं। जब कोई चीज बनाती थीं तो चख कर देख लेती थीं और तब मुझे खाने को देती थीं। मैं भी चखकर देखता हूं। पता नहीं जो चीज किसी भक्त ने भोग के लिए लाकर रखी है या मैंने बनाई है वह भगवान को देने योग्य है या नहीं।

यह सुनकर कमेटी के सदस्य निरुत्तर हो गए।