चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,
फूटते ज्वालामुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।
कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है,
चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।
विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं,
नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं।
मैं गुलामी का कफन, उजला सपन स्वाधीनता का,
नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं।
आँसुओं को, तेज मैं तेजाब का देने चला हूँ,
जो रही कल तक पराजय, आज उस पर जीत हूँ मैं।
मैं प्रभंजन हूँ, घुटन के बादलों को चीर देने,
बिजलियों की धड़कनों का कड़कता संगीत हूँ मैं।
सिसकियों पर, अब किसी अन्याय को पलने न दूँगा,
जुल्म के सिक्के किसी के, मैं यहाँ चलने न दूँगा।
खून के दीपक जलाकर अब दिवाली ही मनेगी,
इस धरा पर, अब दिलों की होलियाँ जलने न दूँगा।
राज सत्ता में हुए मदहोश दीवानो! लुटेरों,
मैं तुम्हारे जुल्म के आघात को ललकारता हूँ।
मैं तुम्हारे दंभ को-पाखंड को, देता चुनौती,
मैं तुम्हारी जात को-औकात को ललकारता हूँ।
मैं जमाने को जगाने, आज यह आवाज देता
इन्कलाबी आग में, अन्याय की होली जलाओ।
तुम नहीं कातर स्वरों में न्याय की अब भीख माँगो,
गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।
आग भूखे पेट की, अधिकार देती है सभी को,
चूसते जो खून, उनकी बोटियाँ हम नोच खाएँ।
जिन भुजाओं में कसक-कुछ कर दिखानेकी ठसक है,
वे न भूखे पेट, दिल की आग ही अपनी दिखाएँ।
और मरना ही हमें जब, तड़प कर घुटकर मरें क्यों
छातियों में गोलियाँ खाकर शहादत से मरें हम।
मेमनों की भाँति मिमिया कर नहीं गर्दन कटाएँ,
स्वाभिमानी शीष ऊँचा रख, बगावत से मरें हम।
इसलिए, मैं देश के हर आदमी से कह रहा हूँ,
आदमीयता का तकाजा है वतन के हों सिपाही।
हड्डियों में शक्ति वह पैदा करें, तलवार मुरझे,
तोप का मुँह बंद कर, हम जुल्म पर ढाएँ तबाही।
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें।
बिक गई यदि कलम, तो फिर देश कैसे बच सकेगा,
सर कलम हो, कालम का सर शर्म से झुकने व पाए।
चल रही तलवार या बन्दूक हो जब देश के हित,
यह चले-चलती रहे, क्षण भर कलम स्र्कने न पाए।
यह कलम ऐसे चले, श्रम-साधना की ज्यों कुदाली,
वर्ग-भेदों की शिलाएँ तोड़ चकनाचूर कर दे।
यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह हैं,
उर्वरा अपनी धरा की, मोतियों से माँग भर दे।
यह चले ऐसे कि उजड़े देश का सौभाग्य लिख दे,
यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराएँ।
यह चले ऐसे कि फसलें झूम कर गाएँ बघावे,
यह चले तो गर्व से खलिहान अपने सर उठाएँ।
यह कलम ऐसे चले, ज्यों पुण्य की है बेल चलती,
यह कलम बन कर कटारी पाप के फाड़े कलेजे।
यह कलम ऐसे चले, चलते प्रगति के पाँव जैसे,
यह कलम चल कर हमारे देश का गौरव सहेजे।
सृष्टि नवयुग की करें हम, पुण्य-पावन इस धरा पर,
हाथ श्रम के, आज नूतन सर्जना करके दिखाएँ।
हो कला की साधना का श्रेय जन-कल्याणकारी,
हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएँ।
कौन कहता है कि हम हैं सरफिरे, खूनी, लुटेरे?
कौन यह जो कापुस्र्ष कह कर हमें धिक्कारता हैं?
कौन यह जो गालियों की भर्त्सना भरपेट करके,
गोलियों से तेज, हमको गालियों से मारता है।
जिन शिराओं में उबलता खून यौवन का हठीला,
शान्ति का ठण्डा जहर यह कौन उनमें भर रहा है?
मुक्ति की समरस्थली में, मारने-मरने चले हम,
कौन यह हिंसा-अहिंसा का विवेचन कर रहा हैं?
कौन तुम? तुम पूज्य-पूज्य बापू?राष्ट्र-अधिनायक हमारे,
तुम बहिष्कृत कर रहे, ये क्रान्तिकारी योजनाएँ?
आत्म-उत्सर्जन करें, स्वाधीनता हित हम शलभ-से,
और तुम कहते, घृणित हैं ये सभी हिंसक विधाएँ।
तो सुनो युगदेव! यह मैं चन्द्रशेखर कह रहा हूँ,
सत्य ही खूनी, लुटेरे और हम सब सरफिरे हैं।
दासता के घृणित बादल छा गए जब से धरा पर,
हम उड़ाने को उन्हें बनकर प्रभंजन आ घिरे हैं।
सत्य ही खूनी कि हमको खून के पथ का भरोसा,
खून के पथ पर सदा स्वाधीनता का रथ चला है।
युद्ध के भीषण कगारे पर अहिंसा भीस्र्ता है,
मुक्ति के प्यासे मृगों को इन भुलावे ने छला हैं।
हड्डियों का खाद देकर खून से सींचा जिसे हैं,
मुक्ति की वह फसल, मौसम के प्रहरों में टिकी हैं।
प्रार्थनाओं-याचनाओं ने संवारा जिस फसल को,
वह सदा काटी गई, लूटी गई सस्ती बिकी है।
प्रार्थनाओं-याचनाओं से अगर बचती प्रतिष्ठा,
गजनवी महमूद, तो फिर मूर्ति-भंजक क्यों कहाता?
तोड़ता क्यों मूर्तियाँ, क्यों फोड़ता मस्तक हमारे,
क्यों अहिंसक खून वह निदोंष लोगों का बहाता?
युद्ध के संहार में, हिंसा-अहिंसा कुछ नहीं है,
मारना-मरना, विजय का मर्म स्वाभाविक समर का।
युद्ध में वीणा नहीं, रणभेरियाँ या शंख बजते,
युद्ध का है कर्म हिंसा, है अहिंसा धर्म घर का।
कर रहे है युद्ध हम भी, लक्ष्य है स्वाधीनता का,
खून का परिचय, वतन के दुश्मनों को दे रहे हैं।
डूबते-तिरते दिखाई दे रहे तुम आँसुओं में,
खून के तूफान में, हम नाव अपनी खे रहे हैं।
मंन्त्र है बलिदान, जो साधन हमारी सिद्ध का है,
खून का सूरज उगा, अभिशाप का हम तम हटाते।
जिस सरलता से कटाते लोग हैं नाखून अपने,
देश के हित उस तरह, हम शीष हैं अपने कटाते।
स्वाभिमानी गर्व से ऊँचा रहे, मस्तक कहाता,
जो पराजय से झुके, धड़ के लिए सर बोझ भारी।
रोष के उत्ताप से खोले नहीं, वह खून कैसा,
आदमी ही क्या, न यदि ललकार बन जाती कटारी।
इसलिए खूनी भले हमको कहो, कहते रहो, हम,
ताप अपने खून का ठण्डा कभी होने न देगे।
खून से धोकर दिखा देंगे कलुष यह दासता का,
हम किसी को आँसुओं से दाग यह धोने न देगे।
तुम अहिंसा भाव से सह लो भले अपमान माँ का,
किन्तु हम उस आततायी का कलेजा फाड़ देंगे।
दृष्टि डालेगा अगर कोई हमारी पूज्य माँ पर ,
वक्ष में उसके हुमक कर तेज खंजर गाड़ देगे।
मातृ-भू माँ से बड़ी है, है दुसह अपमान इसका,
हैं उचित, हम शस्त्र-बल से शत्रु का मस्तक झुकाएँ।
रक्त का शोषण हमारा कर रहा जो क्रूरता से,
खून का बदला करारा खून से ही हम चुकाएँ।
हैं अहिंसा आत्म-बल, तुम आत्म-बल से लड़ रहे हो,
शस्त्र-बल के साथ हम भी आत्म-बल अपना लगते।
शान्ति की लोरी सुना कर, तुम सुलाते वीरता को,
क्रांति के उद्घोष से हम बाहुबल को हैं जगाते।
आत्म-बल होता, तभी तो शस्त्र अपना बल दिखाते,
कायरों के हाथ में हैं शस्त्र बस केवल खिलौने।
मारना-मरना उन्हें है खेल, जिनमें आत्म-बल है,
आत्म-बल जिनमें नहीं हैं, अर्थियाँ उनको बिछौने।
और हाँ तुमने हमें पागल कहा, सच ही कहा है,
खून की हर बूँद में उद्दाम पागलपन भरा है।
हम न यौवन में बुढ़ापे के कभी हामी रहे हैं,
छेड़ता जो काल को, हम में वही यौवन भरा है।
होश खोकर, जोश जो निर्दोष लोगों को सताए,
पाप है वह जोश, ऐसे जोश में आना बुरा है।
यदि वतन के दुश्मनों का खून पीने जोश आए,
इस तरह के जोश से फिर होश में आना बुरा है।
बढ़ रहे संकल्प से हम, लक्ष्य अपने सामने है,
साथ है संबल हमारे, वतन की दीवानगी का।
देश का सौदा, नहीं हम कोश उनके लूटतें हैं।
काँपते है नाम से, हम होश उनके लूटते हैं।
हम नहीं हम, आज हम भूकम्प है-विस्फोट भी हैं,
खून में तूफान की पागल रवानी घुल गई है।
आज शोले-से भड़कते हैं सभी अरमान दिल के,
आज कुछ करके दिखाने को जवानी तुल गई है।
`सरफरोशी की तमन्ना' से उठे हम सरफिरे कुछ,
मस्तकों का मोल, देखें कौन है कितना चुकाता।
देखना हैं,रक्त किसकी देह में गाढ़ा अधिक है,
देखना है, कौन किसका गर्व मिट्टी में मिलता।
हम, दमन के दाँत पैने तोड़ने पर तुल गए हैं,
वक्ष ताने हम खड़े, यम से नहीं डरने चले हैं।
खेल हम इसको समझते, मौत यह हौआ नहीं है,
मौत से भी आज दो-दो हाथ हम करने चले हैं।
जो कफन बाँधे, हथेली पर रखे सर कूद पड़ते,
मौत हो या मौत का भी बाप, वे डरते नहीं हैं।
वीर मरते एक ही हैं बार जीवन में, निडर हो,
कायरों की भाँति सौ-सौ बार वे मरते नहीं हैं।
क्या हुआ दो-चार या दस-बीस हैं हम, हम बहुत हैं
हम हजारों और लाखों के लिए भारी पडेग़े।
सिंह-शावक एक, जैसे चीरता दल गीदड़ों के
हम उसी बल से तुम्हारी छातियों पर जा चढ़ेंगे।
दूध माँ का, आज अपनी आन हमको दे रहा है,
शक्ति माँ के दूध की अब हम दिखा कर ही रहेंगे।
नाचना है नग्न होकर, पीट कर जो ढोल अपना,
सभ्यता का सबक हम उसको सिखाकर ही रहेंगे।
आज यौवन की कड़कती धूप देती है चुनौती,
हम किसी के पाप की छाया यहाँ टिकने न देंगे।
मस्तकों का मोल देकर, हम खरीदेंगे अमरता,
देश का सम्मान, मर कर भी कभी बिकने न देगें।
गर्जना कर, फिर यही संकल्प हम दुहरा रहे हैं,
हम, वतन की शान को-अभिमान को जिन्दा रखेंगे।
देश के उत्थान हित, बलिदान को जिन्दा रखेंगे,
खून के तूफान हिन्दुस्तान को जिन्दा रखेंगे।
और जननायक! भले ही तुम हमें अपना न समझो,
तुम भले कोसो, हमारे आज बम-विस्फोट को भी
सह रहे आघात हम जैसे विदेशी राज-मद के,
झेल लेंगे प्राण अपनों की करारी चोट को भी।
किन्तु दुहरी मार भी विचलित न हमको कर सकेगी,
चोट खाकर और भडकेंगी हमारी भावनाएँ,
और खोलेगा हमारा खून, मचलेगी जवानी,
और भी उद्दण्ड होगी क्रांतिकारी योजनाएँ।
बम हमारे, दुश्मनों के गर्व को खाकर रहेंगे,
दासता के दुर्ग को, विस्फोट इनके तोड़ देगे।
और पिस्तौलें हमारी, गीत गायेंगी विजय के,
वज्र-दृढ़ संकल्प, युग की धार को भी मोड़ देगे।
अब निराशा का कुहासा पथ न धूमिल कर सकेगा,
क्रांति की हर किरण, आत्मा का उजाला बन गई है।
आज केवल ब म नहीं हैं, प्राण भी विस्फोट करते,
शत्रु के संहार को, हर साँस ज्वाला बन गई है।
मैं आजादी के परवानों का दीवाना,
मैं आजादी की डगर-डगर में घूमा हूँ।
आजाद चन्द्रशेखर की है जो याद लिए,
उस ग्राम-ग्राम में, नगर-नगर में घूमा हूँ।
कंकड़-पत्थर, गलियों-चौराहों को मैंने,
उस महाबली की याद सँजोते देखा है।
जिनसे उसके जीवन की गाथा जुड़ी हुई,
उन वृक्षों को भी मैंने रोते देखा है।
वह कुटिया, जिसमें उसने प्रथम साँस ली थी,
कहती, मुझको बेटे की आहट आती है।
वे चट्टानें, जिन पर वह खेला-कूदा था,
उन चट्टानों की भी छाती फट जाती है।
मेरे पैरों से लिपट धूल ने पूछा था
जो मुझमें खेला, वह मेरा फौलाद कहाँ?
हर मेंढ़, डगर, पगडण्डी ने भी प्रश्न किया,
आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? आजाद कहाँ?
आजाद कहाँ, मैं इसका क्या उत्तर देता,
में उनको रोते और बिलखते छोड़ चला।
मैं घबराया, मेरा ही हृदय न फट जाए,
उस ग्राम-धरा से मैं अपना मुख मोड़ चला।
ओोरछा तीर्थ बन गया देश-भक्तों का जो,
जा पहुँचा मैं भी वहाँ सांत्वना पाने को।
क्या पता कि लेने के देने पड़ जायेंगे,
मैं धैर्य कहाँ से लाऊँ, हाल सुनाने को।
मेरे कन्धों से लग सातार बहुत रोई,
आजाद कहाँ भैया? क्या सन्देशा लाए?
सुध-बुध तो खोता नहीं भावरा याद किए,
बतलाओ, तुम तो अभी वहीं से ही आए।
``आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? रटते-रटते,मैंने देखा सातार सूखती जाती थी।
पानी होकर, वह दिल पत्थर कैसे करती,
इसलिए पत्थरों से वह सर टकराती थी।
उस कुटिया में जिसमें योगी आजाद रहा,
उस नर नाहर की वीर-प्रसू माँ आई थी।
उसका क्रन्दन सुन पत्थर पिघल हुए पानी,
फट गए हृदय, उसने पछाड़ जब खाई थी।
दीवारों से सर फोड़-फोड़ उसने पूछा-
``क्यों खड़ी मौन? बतलाओ मेरा लाल कहाँ?
साम्राज्यवाद की पर्वत जैसी छाती भी,
धक-धक करने लगती थी, वह भूचाल कहाँ?
ओ सरिता की वाचाल लहरियों! बोलो तो,
मेरी आशाओं का मृग-छौना कहाँ गया?
माँ होकर भी मैं स्वयं खेलती थी जिससे,
मेरा चन्दा, वह बाल-खिलौना कहाँ गया?
अर्जुन वृक्षों! तुम रहे खड़े के खडे यहाँ,
मेरी आँखों की ज्योति यहाँ से चली गई।
मेरी गुदड़ी में एक लाल ही शेष बचा,
कैसी अभागिनी, मैं उससे भी छली गई।
मेरी छाती से लग कर जिसने दूध पिया,
उस छाती से बोलो अब किसे लगाऊँ मैं?
किसका माथा चूमूँ राजा-बेटा कहकर?
अब कृष्ण-कन्हैया कहकर किसे जगाऊँ मैं?
जिस तरह किया माँ ने विलाप, उसकी गाथा,
हर पत्ती ने रो-रोकर मुझे बताई थी।
मैं खड़ा रह सका नहीं, वहाँ से खिसक गया,
मुझको प्रयाग में ही अपना सुधि आई थी।
वह उपवन भी मैंने जाकर देखा, जिसमें,
आ गई मौत को भी उसने ललकारा था।
जो वीर प्रसूता माँ का दूध पिया उसने,
वह दूध, खून का बन बैठा फव्वारा था।
उस उपवन का हर वृक्ष तड़पता दिखा मुझे,
यह साख-साख ने फूट-फूट कर बतलाया।
आजाद नाम, जो बना वीरता का प्रतीक,
वह सुभट-सूरमा लड़कर यहीं काम आया।
आ-आकर मुझमे कई हवाएँ कह जातीं,
उस बलिदानी को लोग भूलते जाते हैं।
जिन आँखों ने उसका लोहू बहते देखा,
उन आँखों में पद-लोभ फूलते जाते हैं।
कह देना उनसे एक बात यह समझा कर,
जो याद शहीदों की इस तरह भुलाते हैं,
दुश्मन उनकी आजादी को तकते रहते,
जब दाँव लगा, तो वे उसको खा जाते हैं।
कह देना, आजादी जीवित रखनी है तो,
उन सब को पूजें, जिनने खून बहाया है।
यह बिना खून की बूँद बहाए नहीं मिली,
लोहू का भागीरथ यह गंगा लाया है।
यह नहीं, याद भर ही उनकी हो अलम् हमें,
अवसर आए प्राणों के पुष्प चढ़ाएँ हम।
अब आजादी की बलिवेदी माँगे हविष्य,
अपने हाथों से अपने शीष चढाएँ हम।
कर्त्तव्य कह रहा चीख-चीख कर यह हमसे,
हर एक साँस को एक सबक यह याद रहे
अपनी हस्ती क्या, रहें-रहें या नहीं रहें,
यह देश रहे आबाद, देश आजाद रहे।
आजाद, महाभारत का भीषण शंखनाद,
गूँजता सदा युद्धोन्माद का घोष रहा।
उसकी साँसों ने देश-भक्ति के स्वर फूँके,
जुल्मों के प्रति जलता उसका आक्रोश रहा।
आजाद, भँवर वन बैठा जीवन-धारा का,
वह कायरता के कलुष डुबाया करता था।
वह जीवन का बैताल, सजग विक्रम करता,
वह अनाचर में आग लगाया करता था।
आजाद, भयंकर चक्रवात संकल्पों का,
वह अन्यायों की धूल उड़ाया करता था।
अत्याचारी व्यक्तित्वों को करने निढाल,
उसका यौवन रस्सियाँ तुड़ाया करता था।
आजाद, क्षुब्ध सागर का उठता हुआ ज्वार,
थे शासन के जलपोत डगमगाया करते।
उसकी प्रचण्डता का कोई प्रतिरोध न था,
कानून, आग ही उसकी भड़काया करते।
आजाद, हिमालय अडिग उच्च आदर्शों का,
वीरता सदा उसकी अविजित ऊँचाई थी।
भारत-माता के लिए काम आऊँगा मैं,
यह गंगा उसने दोनों हाथ उठाई थी।
आजाद, वीरता के तर्कश का क्रुद्ध तीर,
निर्दिष्ट लक्ष्य का सदा अचूक निशाना था।
आजादी का अभिषेक रक्त से होता है,
यह मर्म, धर्म जैसा उसने पहचाना था।
आजाद, कड़कता हुआ क्रुद्ध वह घन था, जो,
अरि पर खूनी बिजलियाँ गिराया करता था।
वह मुर्दों में संचार खून का करता था,
उनमें जीवन की ज्योति जगाया करता था।
आजाद, भावनाओं का वह भूकम्प विकट,
उस धक्के से साम्राज्यवाद थरथरा उठा।
आजाद वज्र का था ऐसा आघात प्रबल,
अत्याचारों का पर्वत भी चरमरा उठा।
आजाद, फूटता हुआ भयंकर ज्वाला-गिरि,
हम जिसे खून कहते, वह क्रोधित लावा था।
वह दानव-सा दुर्दान्त दस्यु भी दहल गया,
ऐसा भीषण उस महावीर का धावा था।
आजाद, हिन्द के बलिदानों का स्वर्ण-लेख,
जो गर्म खून से गौरव-लिपि में लिखा गया।
भारत के बेटे आजादी के पर्वाने,
यह सत्य, सूर्य जैसा चमका कर दिखा गया।
आजाद, देश की आजादी का वह रहस्य,
जिसने जाना, वह बना देश का दीवाना।
जो जान न पाया, उस कृतघ्न का क्या कहना,
है अर्थहीन उसका जग में आना-जाना।
आजाद प्रेरणा-स्रोत अमर हर पीढ़ी का,
धरती की आजादी प्राणों से प्यारी हो।
यौवन अंगारों से अपना शृंगार करे,
हर फूल वज्र, हर कली कराल कटारी हो।
फूटते ज्वालामुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।
कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है,
चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।
विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं,
नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं।
मैं गुलामी का कफन, उजला सपन स्वाधीनता का,
नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं।
आँसुओं को, तेज मैं तेजाब का देने चला हूँ,
जो रही कल तक पराजय, आज उस पर जीत हूँ मैं।
मैं प्रभंजन हूँ, घुटन के बादलों को चीर देने,
बिजलियों की धड़कनों का कड़कता संगीत हूँ मैं।
सिसकियों पर, अब किसी अन्याय को पलने न दूँगा,
जुल्म के सिक्के किसी के, मैं यहाँ चलने न दूँगा।
खून के दीपक जलाकर अब दिवाली ही मनेगी,
इस धरा पर, अब दिलों की होलियाँ जलने न दूँगा।
राज सत्ता में हुए मदहोश दीवानो! लुटेरों,
मैं तुम्हारे जुल्म के आघात को ललकारता हूँ।
मैं तुम्हारे दंभ को-पाखंड को, देता चुनौती,
मैं तुम्हारी जात को-औकात को ललकारता हूँ।
मैं जमाने को जगाने, आज यह आवाज देता
इन्कलाबी आग में, अन्याय की होली जलाओ।
तुम नहीं कातर स्वरों में न्याय की अब भीख माँगो,
गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।
आग भूखे पेट की, अधिकार देती है सभी को,
चूसते जो खून, उनकी बोटियाँ हम नोच खाएँ।
जिन भुजाओं में कसक-कुछ कर दिखानेकी ठसक है,
वे न भूखे पेट, दिल की आग ही अपनी दिखाएँ।
और मरना ही हमें जब, तड़प कर घुटकर मरें क्यों
छातियों में गोलियाँ खाकर शहादत से मरें हम।
मेमनों की भाँति मिमिया कर नहीं गर्दन कटाएँ,
स्वाभिमानी शीष ऊँचा रख, बगावत से मरें हम।
इसलिए, मैं देश के हर आदमी से कह रहा हूँ,
आदमीयता का तकाजा है वतन के हों सिपाही।
हड्डियों में शक्ति वह पैदा करें, तलवार मुरझे,
तोप का मुँह बंद कर, हम जुल्म पर ढाएँ तबाही।
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें।
बिक गई यदि कलम, तो फिर देश कैसे बच सकेगा,
सर कलम हो, कालम का सर शर्म से झुकने व पाए।
चल रही तलवार या बन्दूक हो जब देश के हित,
यह चले-चलती रहे, क्षण भर कलम स्र्कने न पाए।
यह कलम ऐसे चले, श्रम-साधना की ज्यों कुदाली,
वर्ग-भेदों की शिलाएँ तोड़ चकनाचूर कर दे।
यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह हैं,
उर्वरा अपनी धरा की, मोतियों से माँग भर दे।
यह चले ऐसे कि उजड़े देश का सौभाग्य लिख दे,
यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराएँ।
यह चले ऐसे कि फसलें झूम कर गाएँ बघावे,
यह चले तो गर्व से खलिहान अपने सर उठाएँ।
यह कलम ऐसे चले, ज्यों पुण्य की है बेल चलती,
यह कलम बन कर कटारी पाप के फाड़े कलेजे।
यह कलम ऐसे चले, चलते प्रगति के पाँव जैसे,
यह कलम चल कर हमारे देश का गौरव सहेजे।
सृष्टि नवयुग की करें हम, पुण्य-पावन इस धरा पर,
हाथ श्रम के, आज नूतन सर्जना करके दिखाएँ।
हो कला की साधना का श्रेय जन-कल्याणकारी,
हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएँ।
कौन कहता है कि हम हैं सरफिरे, खूनी, लुटेरे?
कौन यह जो कापुस्र्ष कह कर हमें धिक्कारता हैं?
कौन यह जो गालियों की भर्त्सना भरपेट करके,
गोलियों से तेज, हमको गालियों से मारता है।
जिन शिराओं में उबलता खून यौवन का हठीला,
शान्ति का ठण्डा जहर यह कौन उनमें भर रहा है?
मुक्ति की समरस्थली में, मारने-मरने चले हम,
कौन यह हिंसा-अहिंसा का विवेचन कर रहा हैं?
कौन तुम? तुम पूज्य-पूज्य बापू?राष्ट्र-अधिनायक हमारे,
तुम बहिष्कृत कर रहे, ये क्रान्तिकारी योजनाएँ?
आत्म-उत्सर्जन करें, स्वाधीनता हित हम शलभ-से,
और तुम कहते, घृणित हैं ये सभी हिंसक विधाएँ।
तो सुनो युगदेव! यह मैं चन्द्रशेखर कह रहा हूँ,
सत्य ही खूनी, लुटेरे और हम सब सरफिरे हैं।
दासता के घृणित बादल छा गए जब से धरा पर,
हम उड़ाने को उन्हें बनकर प्रभंजन आ घिरे हैं।
सत्य ही खूनी कि हमको खून के पथ का भरोसा,
खून के पथ पर सदा स्वाधीनता का रथ चला है।
युद्ध के भीषण कगारे पर अहिंसा भीस्र्ता है,
मुक्ति के प्यासे मृगों को इन भुलावे ने छला हैं।
हड्डियों का खाद देकर खून से सींचा जिसे हैं,
मुक्ति की वह फसल, मौसम के प्रहरों में टिकी हैं।
प्रार्थनाओं-याचनाओं ने संवारा जिस फसल को,
वह सदा काटी गई, लूटी गई सस्ती बिकी है।
प्रार्थनाओं-याचनाओं से अगर बचती प्रतिष्ठा,
गजनवी महमूद, तो फिर मूर्ति-भंजक क्यों कहाता?
तोड़ता क्यों मूर्तियाँ, क्यों फोड़ता मस्तक हमारे,
क्यों अहिंसक खून वह निदोंष लोगों का बहाता?
युद्ध के संहार में, हिंसा-अहिंसा कुछ नहीं है,
मारना-मरना, विजय का मर्म स्वाभाविक समर का।
युद्ध में वीणा नहीं, रणभेरियाँ या शंख बजते,
युद्ध का है कर्म हिंसा, है अहिंसा धर्म घर का।
कर रहे है युद्ध हम भी, लक्ष्य है स्वाधीनता का,
खून का परिचय, वतन के दुश्मनों को दे रहे हैं।
डूबते-तिरते दिखाई दे रहे तुम आँसुओं में,
खून के तूफान में, हम नाव अपनी खे रहे हैं।
मंन्त्र है बलिदान, जो साधन हमारी सिद्ध का है,
खून का सूरज उगा, अभिशाप का हम तम हटाते।
जिस सरलता से कटाते लोग हैं नाखून अपने,
देश के हित उस तरह, हम शीष हैं अपने कटाते।
स्वाभिमानी गर्व से ऊँचा रहे, मस्तक कहाता,
जो पराजय से झुके, धड़ के लिए सर बोझ भारी।
रोष के उत्ताप से खोले नहीं, वह खून कैसा,
आदमी ही क्या, न यदि ललकार बन जाती कटारी।
इसलिए खूनी भले हमको कहो, कहते रहो, हम,
ताप अपने खून का ठण्डा कभी होने न देगे।
खून से धोकर दिखा देंगे कलुष यह दासता का,
हम किसी को आँसुओं से दाग यह धोने न देगे।
तुम अहिंसा भाव से सह लो भले अपमान माँ का,
किन्तु हम उस आततायी का कलेजा फाड़ देंगे।
दृष्टि डालेगा अगर कोई हमारी पूज्य माँ पर ,
वक्ष में उसके हुमक कर तेज खंजर गाड़ देगे।
मातृ-भू माँ से बड़ी है, है दुसह अपमान इसका,
हैं उचित, हम शस्त्र-बल से शत्रु का मस्तक झुकाएँ।
रक्त का शोषण हमारा कर रहा जो क्रूरता से,
खून का बदला करारा खून से ही हम चुकाएँ।
हैं अहिंसा आत्म-बल, तुम आत्म-बल से लड़ रहे हो,
शस्त्र-बल के साथ हम भी आत्म-बल अपना लगते।
शान्ति की लोरी सुना कर, तुम सुलाते वीरता को,
क्रांति के उद्घोष से हम बाहुबल को हैं जगाते।
आत्म-बल होता, तभी तो शस्त्र अपना बल दिखाते,
कायरों के हाथ में हैं शस्त्र बस केवल खिलौने।
मारना-मरना उन्हें है खेल, जिनमें आत्म-बल है,
आत्म-बल जिनमें नहीं हैं, अर्थियाँ उनको बिछौने।
और हाँ तुमने हमें पागल कहा, सच ही कहा है,
खून की हर बूँद में उद्दाम पागलपन भरा है।
हम न यौवन में बुढ़ापे के कभी हामी रहे हैं,
छेड़ता जो काल को, हम में वही यौवन भरा है।
होश खोकर, जोश जो निर्दोष लोगों को सताए,
पाप है वह जोश, ऐसे जोश में आना बुरा है।
यदि वतन के दुश्मनों का खून पीने जोश आए,
इस तरह के जोश से फिर होश में आना बुरा है।
बढ़ रहे संकल्प से हम, लक्ष्य अपने सामने है,
साथ है संबल हमारे, वतन की दीवानगी का।
देश का सौदा, नहीं हम कोश उनके लूटतें हैं।
काँपते है नाम से, हम होश उनके लूटते हैं।
हम नहीं हम, आज हम भूकम्प है-विस्फोट भी हैं,
खून में तूफान की पागल रवानी घुल गई है।
आज शोले-से भड़कते हैं सभी अरमान दिल के,
आज कुछ करके दिखाने को जवानी तुल गई है।
`सरफरोशी की तमन्ना' से उठे हम सरफिरे कुछ,
मस्तकों का मोल, देखें कौन है कितना चुकाता।
देखना हैं,रक्त किसकी देह में गाढ़ा अधिक है,
देखना है, कौन किसका गर्व मिट्टी में मिलता।
हम, दमन के दाँत पैने तोड़ने पर तुल गए हैं,
वक्ष ताने हम खड़े, यम से नहीं डरने चले हैं।
खेल हम इसको समझते, मौत यह हौआ नहीं है,
मौत से भी आज दो-दो हाथ हम करने चले हैं।
जो कफन बाँधे, हथेली पर रखे सर कूद पड़ते,
मौत हो या मौत का भी बाप, वे डरते नहीं हैं।
वीर मरते एक ही हैं बार जीवन में, निडर हो,
कायरों की भाँति सौ-सौ बार वे मरते नहीं हैं।
क्या हुआ दो-चार या दस-बीस हैं हम, हम बहुत हैं
हम हजारों और लाखों के लिए भारी पडेग़े।
सिंह-शावक एक, जैसे चीरता दल गीदड़ों के
हम उसी बल से तुम्हारी छातियों पर जा चढ़ेंगे।
दूध माँ का, आज अपनी आन हमको दे रहा है,
शक्ति माँ के दूध की अब हम दिखा कर ही रहेंगे।
नाचना है नग्न होकर, पीट कर जो ढोल अपना,
सभ्यता का सबक हम उसको सिखाकर ही रहेंगे।
आज यौवन की कड़कती धूप देती है चुनौती,
हम किसी के पाप की छाया यहाँ टिकने न देंगे।
मस्तकों का मोल देकर, हम खरीदेंगे अमरता,
देश का सम्मान, मर कर भी कभी बिकने न देगें।
गर्जना कर, फिर यही संकल्प हम दुहरा रहे हैं,
हम, वतन की शान को-अभिमान को जिन्दा रखेंगे।
देश के उत्थान हित, बलिदान को जिन्दा रखेंगे,
खून के तूफान हिन्दुस्तान को जिन्दा रखेंगे।
और जननायक! भले ही तुम हमें अपना न समझो,
तुम भले कोसो, हमारे आज बम-विस्फोट को भी
सह रहे आघात हम जैसे विदेशी राज-मद के,
झेल लेंगे प्राण अपनों की करारी चोट को भी।
किन्तु दुहरी मार भी विचलित न हमको कर सकेगी,
चोट खाकर और भडकेंगी हमारी भावनाएँ,
और खोलेगा हमारा खून, मचलेगी जवानी,
और भी उद्दण्ड होगी क्रांतिकारी योजनाएँ।
बम हमारे, दुश्मनों के गर्व को खाकर रहेंगे,
दासता के दुर्ग को, विस्फोट इनके तोड़ देगे।
और पिस्तौलें हमारी, गीत गायेंगी विजय के,
वज्र-दृढ़ संकल्प, युग की धार को भी मोड़ देगे।
अब निराशा का कुहासा पथ न धूमिल कर सकेगा,
क्रांति की हर किरण, आत्मा का उजाला बन गई है।
आज केवल ब म नहीं हैं, प्राण भी विस्फोट करते,
शत्रु के संहार को, हर साँस ज्वाला बन गई है।
मैं आजादी के परवानों का दीवाना,
मैं आजादी की डगर-डगर में घूमा हूँ।
आजाद चन्द्रशेखर की है जो याद लिए,
उस ग्राम-ग्राम में, नगर-नगर में घूमा हूँ।
कंकड़-पत्थर, गलियों-चौराहों को मैंने,
उस महाबली की याद सँजोते देखा है।
जिनसे उसके जीवन की गाथा जुड़ी हुई,
उन वृक्षों को भी मैंने रोते देखा है।
वह कुटिया, जिसमें उसने प्रथम साँस ली थी,
कहती, मुझको बेटे की आहट आती है।
वे चट्टानें, जिन पर वह खेला-कूदा था,
उन चट्टानों की भी छाती फट जाती है।
मेरे पैरों से लिपट धूल ने पूछा था
जो मुझमें खेला, वह मेरा फौलाद कहाँ?
हर मेंढ़, डगर, पगडण्डी ने भी प्रश्न किया,
आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? आजाद कहाँ?
आजाद कहाँ, मैं इसका क्या उत्तर देता,
में उनको रोते और बिलखते छोड़ चला।
मैं घबराया, मेरा ही हृदय न फट जाए,
उस ग्राम-धरा से मैं अपना मुख मोड़ चला।
ओोरछा तीर्थ बन गया देश-भक्तों का जो,
जा पहुँचा मैं भी वहाँ सांत्वना पाने को।
क्या पता कि लेने के देने पड़ जायेंगे,
मैं धैर्य कहाँ से लाऊँ, हाल सुनाने को।
मेरे कन्धों से लग सातार बहुत रोई,
आजाद कहाँ भैया? क्या सन्देशा लाए?
सुध-बुध तो खोता नहीं भावरा याद किए,
बतलाओ, तुम तो अभी वहीं से ही आए।
``आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? रटते-रटते,मैंने देखा सातार सूखती जाती थी।
पानी होकर, वह दिल पत्थर कैसे करती,
इसलिए पत्थरों से वह सर टकराती थी।
उस कुटिया में जिसमें योगी आजाद रहा,
उस नर नाहर की वीर-प्रसू माँ आई थी।
उसका क्रन्दन सुन पत्थर पिघल हुए पानी,
फट गए हृदय, उसने पछाड़ जब खाई थी।
दीवारों से सर फोड़-फोड़ उसने पूछा-
``क्यों खड़ी मौन? बतलाओ मेरा लाल कहाँ?
साम्राज्यवाद की पर्वत जैसी छाती भी,
धक-धक करने लगती थी, वह भूचाल कहाँ?
ओ सरिता की वाचाल लहरियों! बोलो तो,
मेरी आशाओं का मृग-छौना कहाँ गया?
माँ होकर भी मैं स्वयं खेलती थी जिससे,
मेरा चन्दा, वह बाल-खिलौना कहाँ गया?
अर्जुन वृक्षों! तुम रहे खड़े के खडे यहाँ,
मेरी आँखों की ज्योति यहाँ से चली गई।
मेरी गुदड़ी में एक लाल ही शेष बचा,
कैसी अभागिनी, मैं उससे भी छली गई।
मेरी छाती से लग कर जिसने दूध पिया,
उस छाती से बोलो अब किसे लगाऊँ मैं?
किसका माथा चूमूँ राजा-बेटा कहकर?
अब कृष्ण-कन्हैया कहकर किसे जगाऊँ मैं?
जिस तरह किया माँ ने विलाप, उसकी गाथा,
हर पत्ती ने रो-रोकर मुझे बताई थी।
मैं खड़ा रह सका नहीं, वहाँ से खिसक गया,
मुझको प्रयाग में ही अपना सुधि आई थी।
वह उपवन भी मैंने जाकर देखा, जिसमें,
आ गई मौत को भी उसने ललकारा था।
जो वीर प्रसूता माँ का दूध पिया उसने,
वह दूध, खून का बन बैठा फव्वारा था।
उस उपवन का हर वृक्ष तड़पता दिखा मुझे,
यह साख-साख ने फूट-फूट कर बतलाया।
आजाद नाम, जो बना वीरता का प्रतीक,
वह सुभट-सूरमा लड़कर यहीं काम आया।
आ-आकर मुझमे कई हवाएँ कह जातीं,
उस बलिदानी को लोग भूलते जाते हैं।
जिन आँखों ने उसका लोहू बहते देखा,
उन आँखों में पद-लोभ फूलते जाते हैं।
कह देना उनसे एक बात यह समझा कर,
जो याद शहीदों की इस तरह भुलाते हैं,
दुश्मन उनकी आजादी को तकते रहते,
जब दाँव लगा, तो वे उसको खा जाते हैं।
कह देना, आजादी जीवित रखनी है तो,
उन सब को पूजें, जिनने खून बहाया है।
यह बिना खून की बूँद बहाए नहीं मिली,
लोहू का भागीरथ यह गंगा लाया है।
यह नहीं, याद भर ही उनकी हो अलम् हमें,
अवसर आए प्राणों के पुष्प चढ़ाएँ हम।
अब आजादी की बलिवेदी माँगे हविष्य,
अपने हाथों से अपने शीष चढाएँ हम।
कर्त्तव्य कह रहा चीख-चीख कर यह हमसे,
हर एक साँस को एक सबक यह याद रहे
अपनी हस्ती क्या, रहें-रहें या नहीं रहें,
यह देश रहे आबाद, देश आजाद रहे।
आजाद, महाभारत का भीषण शंखनाद,
गूँजता सदा युद्धोन्माद का घोष रहा।
उसकी साँसों ने देश-भक्ति के स्वर फूँके,
जुल्मों के प्रति जलता उसका आक्रोश रहा।
आजाद, भँवर वन बैठा जीवन-धारा का,
वह कायरता के कलुष डुबाया करता था।
वह जीवन का बैताल, सजग विक्रम करता,
वह अनाचर में आग लगाया करता था।
आजाद, भयंकर चक्रवात संकल्पों का,
वह अन्यायों की धूल उड़ाया करता था।
अत्याचारी व्यक्तित्वों को करने निढाल,
उसका यौवन रस्सियाँ तुड़ाया करता था।
आजाद, क्षुब्ध सागर का उठता हुआ ज्वार,
थे शासन के जलपोत डगमगाया करते।
उसकी प्रचण्डता का कोई प्रतिरोध न था,
कानून, आग ही उसकी भड़काया करते।
आजाद, हिमालय अडिग उच्च आदर्शों का,
वीरता सदा उसकी अविजित ऊँचाई थी।
भारत-माता के लिए काम आऊँगा मैं,
यह गंगा उसने दोनों हाथ उठाई थी।
आजाद, वीरता के तर्कश का क्रुद्ध तीर,
निर्दिष्ट लक्ष्य का सदा अचूक निशाना था।
आजादी का अभिषेक रक्त से होता है,
यह मर्म, धर्म जैसा उसने पहचाना था।
आजाद, कड़कता हुआ क्रुद्ध वह घन था, जो,
अरि पर खूनी बिजलियाँ गिराया करता था।
वह मुर्दों में संचार खून का करता था,
उनमें जीवन की ज्योति जगाया करता था।
आजाद, भावनाओं का वह भूकम्प विकट,
उस धक्के से साम्राज्यवाद थरथरा उठा।
आजाद वज्र का था ऐसा आघात प्रबल,
अत्याचारों का पर्वत भी चरमरा उठा।
आजाद, फूटता हुआ भयंकर ज्वाला-गिरि,
हम जिसे खून कहते, वह क्रोधित लावा था।
वह दानव-सा दुर्दान्त दस्यु भी दहल गया,
ऐसा भीषण उस महावीर का धावा था।
आजाद, हिन्द के बलिदानों का स्वर्ण-लेख,
जो गर्म खून से गौरव-लिपि में लिखा गया।
भारत के बेटे आजादी के पर्वाने,
यह सत्य, सूर्य जैसा चमका कर दिखा गया।
आजाद, देश की आजादी का वह रहस्य,
जिसने जाना, वह बना देश का दीवाना।
जो जान न पाया, उस कृतघ्न का क्या कहना,
है अर्थहीन उसका जग में आना-जाना।
आजाद प्रेरणा-स्रोत अमर हर पीढ़ी का,
धरती की आजादी प्राणों से प्यारी हो।
यौवन अंगारों से अपना शृंगार करे,
हर फूल वज्र, हर कली कराल कटारी हो।