मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Monday 27 April 2015

मुक्ति की आकांक्षा-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

चिड़िया को लाख समझाओ
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,
वहॉं हवा में उन्‍हें
अपने जिस्‍म की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
पर पानी के लिए भटकना है,
यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहॉं चुग्‍गा मोटा है।
बाहर बहेलिए का डर है,
यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्‍वर है।
फिर भी चिड़िया
मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,
पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,
हरसूँ ज़ोर लगाएगी
और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

लीक पर वे चलें जिनके-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं
शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।
लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।

Saturday 25 April 2015

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना-लीक पर वे चलें

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं ।

शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।

लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-गाँव में अलाव

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया
ताते जल नहा पहन श्वेत वसन आयी
खुले लान बैठ गयी दमकती लुनायी
सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
नभ के उद्यान-छत्र तले मेज : टीला,
पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला,
वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
पैरों में मखमल की जूती-सी-क्यारी,
मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी,
डोलती सलाई हिलता जल लहराया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
बोली कुछ नहीं, एक कुर्सी की खाली,
हाथ बढ़ा छज्जे की साया सरकाली,
बाँह छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-दिवंगत पिता के लिए

(१)
सूरज के साथ-साथ
सन्ध्या के मंत्र डूब जाते थे,
घंटी बजती थी अनाथ आश्रम में
भूखे भटकते बच्चों के लौट आने की,
दूर-दूर तक फैले खेतों पर,
धुएँ में लिपटे गाँव पर,
वर्षा से भीगी कच्ची डगर पर,
जाने कैसा रहस्य भरा करुण अन्धकार फैल जाता था,
और ऐसे में आवाज़ आती थी पिता
तुम्हारे पुकारने की,
मेरा नाम उस अंधियारे में
बज उठता था, तुम्हारे स्वरों में।
मैं अब भी हूँ
अब भी है यह रोता हुआ अन्धकार चारों ओर
लेकिन कहाँ है तुम्हारी आवाज़
जो मेरा नाम भरकर
इसे अविकल स्वरों में बजा दे।

(२)
'धक्का देकर किसी को
आगे जाना पाप है'
अत: तुम भीड़ से अलग हो गए।

'महत्वाकांक्षा ही सब दुखों का मूल है'
इसलिए तुम जहाँ थे वहीं बैठ गए।
'संतोष परम धन है'
मानकर तुमने सब कुछ लुट जाने दिया।

पिता! इन मूल्यों ने तो तुम्हें
अनाथ, निराश्रित और विपन्न ही बनाया,
तुमसे नहीं, मुझसे कहती है,
मृत्यु के समय तुम्हारे
निस्तेज मुख पर पड़ती यह क्रूर दारूण छाया।

(३)
'सादगी से रहूँगा'
तुमने सोचा था
अत: हर उत्सव में तुम द्वार पर खड़े रहे।
'झूठ नहीं बोलूँगा'
तुमने व्रत लिया था
अत:हर गोष्ठी में तुम चित्र से जड़े रहे।

तुमने जितना ही अपने को अर्थ दिया
दूसरों ने उतना ही तुम्हें अर्थहीन समझा।
कैसी विडम्बना है कि
झूठ के इस मेले में
सच्चे थे तुम
अत:वैरागी से पड़े रहे।

(४)
तुम्हारी अन्तिम यात्रा में
वे नहीं आए
जो तुम्हारी सेवाओं की सीढ़ियाँ लगाकर
शहर की ऊँची इमारतों में बैठ ग थे,
जिन्होंने तुम्हारी सादगी के सिक्कों से
भरे बाजार भड़कीली दुकानें खोल रक्खी थीं;
जो तुम्हारे सदाचार को
अपने फर्म का इश्तहार बनाकर
डुगडुगी के साथ शहर में बाँट रहे थे।

पिता! तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए
वे नहीं आए

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-व्यंग्य मत बोलो

व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
अंधों का साथ हो जाये तो
खुद भी आँखें बंद कर लो
जैसे सब टटोलते हैं
राह तुम भी टटोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
क्या रखा है कुरेदने में
हर एक का चक्रव्यूह कुरेदने में
सत्य के लिए
निरस्त्र टूटा पहिया ले
लड़ने से बेहतर है
जैसी है दुनिया
उसके साथ होलो
व्यंग्य मत बोलो।
भीतर कौन देखता है
बाहर रहो चिकने
यह मत भूलो
यह बाज़ार है
सभी आए हैं बिकने
राम राम कहो
और माखन मिश्री घोलो।
व्यंग्य मत बोलो।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-पोस्टमार्टम की रिपोर्ट

गोली खाकर
एक के मुँह से निकला-
'राम'।
दूसरे के मुँह से निकला-
'माओ'।
लेकिन
तीसरे के मुँह से निकला-
'आलू'।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-सब कुछ कह लेने के बाद

सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना ।

वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
वह सारी रचना का क्रम है,
वह जीवन का संचित श्रम है,
बस उतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना ।

वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
वह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उसको मत वाणी देना ।

वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,

अन्तराल है वह-नया सूर्य उगा लेती है,
नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना ।


Friday 17 April 2015

इब्नबतूता का जूता-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इब्नबतूता
पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
थोड़ी घुस गई कान में
कभी नाक को
कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते उनका जूता
पहुंच गया जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दूकान में

इब्‍ने बतूता, 
बगल में जूता
पहने तो करता है चुर्रर
उड उड आवे, दाना चुगेवे
उड जावे चिडिया फुर्रर

अगले मोड पे, मौत खड़ी है
अरे मरने की भी क्‍या जल्‍दी है
होर्न बजाके, आ बगियन में
हो दुर्घटना से देर भली है
चल उड जा उड जा फुर फुर

दोनों तरफ से बजती है ये
आय हाय जिंदगी क्‍या ढोलक है
हॉर्न बजाके आ आ बगियन में
अरे थोड़ा आगे गतिरोधक है 

अरे चल चल उड़ जा फुर्र फुर्र 

इब्नबतूता 
बगल में जूता 
पहने तो करता है जुर्म 
उड़ उड़ आवे दाना चुगे 

उड़ जावे चिड़िया फुर्र