मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी पसंदीदा कविताओं,कहानियों, को दुनिया के सामने लाने के लिए कर रहा हूँ. मैं इस ब्लॉग का इस्तेमाल अव्यावसायिक रूप से कर रहा हूँ.मैं कोशिश करता हूँ कि केवल उन्ही रचनाओं को सामने लाऊँ जो पब्लिक डोमेन में फ्री ऑफ़ कॉस्ट अवेलेबल है . यदि किसी का कॉपीराइट इशू है तो मेरे ईमेल ajayamitabhsuman@gmail.comपर बताए . मैं उन रचनाओं को हटा दूंगा. मेरा उद्देश्य अच्छी कविताओं,कहानियों, को एक जगह लाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना है.


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Thursday 23 April 2015

अटल बिहारी वाजपेयी-मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना

ऊँचे पहाड़ पर, 
पेड़ नहीं लगते, 
पौधे नहीं उगते, 
न घास ही जमती है। 

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई, 
जिसका परस 
पानी को पत्थर कर दे, 
ऐसी ऊँचाई 
जिसका दरस हीन भाव भर दे, 
अभिनंदन की अधिकारी है, 
आरोहियों के लिये आमंत्रण है, 
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं, 

किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि 
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती, 
सबसे अलग-थलग, 
परिवेश से पृथक, 
अपनों से कटा-बँटा, 
शून्य में अकेला खड़ा होना, 
पहाड़ की महानता नहीं, 
मजबूरी है। 
ऊँचाई और गहराई में 
आकाश-पाताल की दूरी है। 

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

ज़रूरी यह है कि 
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, 
जिससे मनुष्य, 
ठूँठ सा खड़ा न रहे, 
औरों से घुले-मिले, 
किसी को साथ ले, 
किसी के संग चले। 

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं, 
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है। 
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें, 
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें, 

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़, 
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़, 
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। 

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।

अटल बिहारी वाजपेयी-अपने ही मन से कुछ बोलें

क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!

जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

अटल बिहारी वाजपेयी-आओ फिर से दिया जलाएँ

आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

अटल बिहारी वाजपेयी-मैंने जन्म नहीं मांगा था!

मैंने जन्म नहीं मांगा था, 
किन्तु मरण की मांग करुँगा। 

जाने कितनी बार जिया हूँ, 
जाने कितनी बार मरा हूँ। 
जन्म मरण के फेरे से मैं, 
इतना पहले नहीं डरा हूँ। 

अन्तहीन अंधियार ज्योति की, 
कब तक और तलाश करूँगा। 
मैंने जन्म नहीं माँगा था, 
किन्तु मरण की मांग करूँगा। 

बचपन, यौवन और बुढ़ापा, 
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी। 
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, 
यह मजबूरी या मनमानी? 

पूर्व जन्म के पूर्व बसी— 
दुनिया का द्वारचार करूँगा। 
मैंने जन्म नहीं मांगा था, 
किन्तु मरण की मांग करूँगा।

Friday 17 April 2015

प्यादे से पिट गया वज़ीर-अटल विहारी वाजपेयी

चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वज़ीर
चलूँ आख़िरी चाल के बाजी छोड़ विरक्ति रचाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं

सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग़ झर गया
तिनके बिखरे हुए बटोरूँ या नव सॄष्टि सजाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं

दो दिन मिले उधार में
घाटे के व्यापार में
क्षण क्षण का हिसाब जोड़ूँ
या पूँजी शेष लुटाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं

आओ मन की गाँठे खोलें-अटल विहारी वाजपेयी

यमुना तट, टीले रेतीले, घास फूस का घर डांडे पर
गोबर से लीपे आंगन में, तुलसी का बिरवा, धंटी स्वर 
माँ के मुह से रामायण के दोहे-चौपाई रस घोले आओ मन की गाँठे खोलें 

बाबा के बैठक में बिछी चटाई , बहार रखे खड़ाऊं
मिलने वाले के मन में असमंजस जाऊं या न जाऊं
माथे तिलक आँख पर ऐनक, पोथी खुली स्वयं से बोले 
आओ मन की गाँठे खोलें  
आओ मन की गाँठे खोलें 


सरस्वती की देख साधना लक्ष्मी ने सम्बन्ध है जोड़ा 
मिटटी ने माथे का चन्दन बनाने का संकल्प न छोड़ा 
नए वर्ष की अगवानी में, टुक रुक ले, कुछ ताज़ा हो ले 
आओ मन की गाँठे खोलें 


यमुना तट, टीले रेतीले, घास फूस का घर डांडे पर
गोबर से लीपे आंगन में, तुलसी का बिरवा, धंटी स्वर 
माँ के मुह से रामायण के दोहे-चौपाई रस घोले आओ मन की गाँठे खोलें  
आओ मन की गाँठे खोलें 
आओ मन की गाँठे खोलें 

Thursday 16 April 2015

अटल बिहारी बाजपेयी/क़दम मिलाकर चलना होगा

बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

गीत नया गाता हूँ-अटल बिहारी वाजपेयी

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात

प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
८ दिसंबर २००१