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Saturday, 25 April 2015

फ़िराक़ गोरखपुरी-यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की

यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की 
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी

ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है 
ज़रूरत आदमी को आदमी की 

बसा-औक्रात1 दिल से कह गयी है 
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी 

मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार 
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी 

महब्बत में करें क्या हाल दिल का 
ख़ुशी ही काम आती है न ग़म की 

भरी महफ़ि‍ल में हर इक से बचा कर 
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली 

लड़कपन की अदा है जानलेवा 
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की

है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल2 पर 
चमन में मुस्कुहराहट कर कली की 

रक़ीबे-ग़मज़दा3 अब सब्र कर ले 
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी 

1- कभी-कभी, 2- बहार के दिन, 3- दुखी प्रतिद्वन्द्वी 

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