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Thursday, 16 April 2015

तुमुल कोलाहल कलह में-जय शंकर प्रसाद

मुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन |
विफल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक सी रही तब, मैं मलय की बात रे मन |
चिर विषाद विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर वन की,
मैं उषा-सी ज्योति रेखा, कुसुम विकसित प्रात रे मन |
जहां मरू-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन घाटियों की, मैं सरस बरसात रे मन |
पवन के प्राचीर में रुक,
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व दिन की, मैं कुसुम ऋतु रात रे मन |
चिर निराशा नीरधर से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर से,
मधुप मुख मकरंद मुकुलित, मैं सजल जलजात रे मन |

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