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Saturday, 18 April 2015

दहेज के दानव-बेनाम कोहड़ाबाज़ारी

मैं एक बूढा हूँ रंजो गम का दामन हर दम सहता हूँ .

किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ .

मेरा आँगन था सुना पड़ा मुद्दत से उदासी थी 
थी सुबह हर बंजर मेरी हर शाम बासी थी .

बड़ी मिन्नतें की घर में मैंने उजाले के वास्ते .
पीर , बाबा को गया , मौला के रास्ते .

बड़ी ख्वाहिशों के बाद मेरी बगिया भी चहकी थी .
खुदा तुमने बूढ़े के दामन में औलाद बख्शी थी .

हर सुबह की किरण नई पैगाम लाती थी .
मेरी बेटी आँगन में जब खिलखिलाती थी .

खुदा मेरे मुझे इस बात का बड़ा अफ़सोस था .
मेरी डाट से डरती थी इस बात का रोष था .

मेरी बेगम से ही वो खोलती थी ख्वाहिशों कि बात 
सहमी बड़ी रहती थी मुझसे , था बुरा एहसास .

उम्र बेटी की मेरी ज्यों बढ़ती जाती थी .
ब्याह की चिंता मुझे मौला सताती थी .

साईकिल लेके बूढा मैं हर गली दर घुमा .
सुनकर दहेज की बात सर मेरा घुमा .

महीने भर जला के खून अपना जो पाता हूँ .
हज़ार सात रूपये में तो घर चलाता हूँ .

चपरासी मैं लाख रूपये कहाँ से लाता ?
सोच के ये बात मेरा , दिल था घबडाता .

दिन मेरे गुजर रहे थे मिन्नतें करते .
आस थी शायद किसी का भी दिल पिघले .

देख के मेरा यूँ झुकना औरों के सामने .
पूछती बेटी मेरी क्या जुर्म की थी बाप ने ?

फिर जुर्म से बाप को आजाद कर दिया .
मेरी बेटी ने आग में जल खाक कर दिया .

उसी आग को सिने मैं लेके दर दर जलता हूँ .
किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ .

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