ये समझते हैं, खिले हैं तो फिर बिखरना है ।
पर अपने ख़ून से गुलशन में रंग भरना है ।
उससे मिलने को कई मोड़ से गुज़रना है ।
अभी तो आग के दरिया में भी उतरना है ।
जिसके आने से बदल जाए ज़माने का निज़ाम,
ऐसे इंसान को इस ख़ाक से उभरना है ।
बह रहा दरिया, इधर एक घूँट को तरसें,
उदय प्रताप जी[2] वादे से ये मुकरना है ।
पर अपने ख़ून से गुलशन में रंग भरना है ।
उससे मिलने को कई मोड़ से गुज़रना है ।
अभी तो आग के दरिया में भी उतरना है ।
जिसके आने से बदल जाए ज़माने का निज़ाम,
ऐसे इंसान को इस ख़ाक से उभरना है ।
बह रहा दरिया, इधर एक घूँट को तरसें,
उदय प्रताप जी[2] वादे से ये मुकरना है ।
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