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Thursday, 7 May 2015

व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने!-रामधारी सिंह "दिनकर"

व्योम-कुंजों की परी अयि कल्पने !
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं, 
उड़ न सकते हम धुमैले स्वप्न तक,
शक्ति हो तो आ, बसा अलका यहीं। 

फूल से सज्जित तुम्हारे अंग हैं
और हीरक-ओस का श्रृंगार है,
धूल में तरुणी-तरुण हम रो रहे,
वेदना का शीश पर गुरु भार है।

अरुण की आभा तुम्हारे देश में,
है सुना, उसकी अमिट मुसकान है;
टकटकी मेरी क्षितिज पर है लगी,
निशि गई, हँसता न स्वर्ण-विहान है। 

व्योम-कुंजों की सखी, अयि कल्पने !
आज तो हँस लो जरा वनफूल में
रेणुके ! हँसने लगे जुगनू, चलो, 
आज कूकें खँडहरों की धूल में। 

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