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Monday, 27 April 2015

आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं / हैरत इलाहाबादी

आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं 
सामान सौ बरस के हैं कल की ख़बर नहीं 

आ जाएँ रोब-ए-ग़ैर में हम वो बशर नहीं 
कुछ आप की तरह हमें लोगों का डर नहीं 

इक तो शब-ए-फ़िराक़ के सदमे हैं जाँ-गुदाज़
अंधेर इस पे ये है कि होती सहर नहीं 

क्या कहिए इस तरह के तलव्वुन-मिज़ाज को
वादे का है ये हाल इधर हाँ उधर नहीं 

रखते क़दम जो वादी-ए-उल्फ़त में बे-धड़क
‘हैरत’ सिवा तुम्हारे किसी का जिगर नहीं

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