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Monday, 4 May 2015

काकी की बनारसी साड़ी-काका हाथरसी

कवि-सम्मेलन के लए बन्यौ अचानक प्लान ।
काकी के बिछुआ बजे, खड़े है गए कान ॥
खड़े है गए कान, ‘रहस्य छुपाय रहे हो’ ।
सब जानूँ मैं, आज बनारस जाय रहे हो ॥
‘काका’ बनिके व्यर्थ थुकायो जग में तुमने ।
कबहु बनारस की साड़ी नहिं बांधी हमने ॥

हे भगवन, सौगन्ध मैं आज दिवाऊं तोहि ।
कवि-पत्नी मत बनइयो, काहु जनम में मोहि ॥
काहु जनम में मोहि, रखें मतलब की यारी ।
छोटी-छोटी मांग न पूरी भई हमारी ॥
श्वास खींच के, आँख मीच आँसू ढरकाए ।
असली गालन पै नकली मोती लुढ़काए ॥

शांत ह्वे गयो क्रोध तब, मारी हमने चोट ।
‘साड़िन में खरचूं सबहि, सम्मेलन के नोट’ ॥
सम्मेलन के नोट? हाय ऐसों मत करियों ।
ख़बरदार द्वै साड़ी सों ज़्यादा मत लइयों ॥
हैं बनारसी ठग प्रसिद्ध तुम सूधे साधे ।
जितनें माँगें दाम लगइयों बासों आधे ॥


गाँठ बांध उनके वचन, पहुँचे बीच बज़ार ।
देख्यो एक दुकान पै, साड़िन कौ अंबार ॥
साड़िन कौ अंबार, डिज़ाइन बीस दिखाए ।
छाँटी साड़ी एक, दाम अस्सी बतलाए ॥
घरवारी की चेतावनी ध्यान में आई |
कर आधी कीमत, हमने चालीस लगाई ||

दुकनदार कह्बे लग्यो, “लेनी हो तो लेओ” ।
“मोल-तोल कूं छोड़ के साठ रुपैय्या देओ” ॥
साठ रुपैय्या देओ? जंची नहिं हमकूं भैय्या ।
स्वीकारो तो देदें तुमकूं तीस रुपैय्या ?
घटते-घटते जब पचास पै लाला आए ।
हमने फिर आधे करके पच्चीस लगाए ॥

लाला को जरि-बजरि के ज्ञान है गयो लुप्त ।
मारी साड़ी फेंक के, लैजा मामा मुफ्त |
लैजा मामा मुफ्त, कहे काका सों मामा |
लाला तू दुकनदार है कै पैजामा ||
अपने सिद्धांतन पै काका अडिग रहेंगे ।
मुफ्त देओ तो एक नहीं द्वै साड़ी लेंगे ॥

भागे जान बचाय के, दाब जेब के नोट ।
आगे एक दुकान पै देख्यो साइनबोट ॥
देख्यो साइनबोट, नज़र वा पै दौड़ाई ।
‘सूती साड़ी द्वै रुपया, रेशमी अढ़ाई’ ॥
कहं काका कवि, यह दुकान है सस्ती कितनी ।
बेचेंगे हाथरस, लै चलें दैदे जितनी ॥

भीतर घुसे दुकान में, बाबू आर्डर लेओ ।
सौ सूती सौ रेशमी साड़ी हमकूं देओ ॥
साड़ी हमकूं देओ, क्षणिक सन्नाटो छायो ।
डारी हमपे नज़र और लाला मुस्कायो ॥


भांग छानिके आयो है का दाढ़ी वारे ?
लिखे बोर्ड पै ‘ड्राइ-क्लीन’ के रेट हमारे ॥

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