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Monday, 4 May 2015

सपनों का पेड़: अशोक चक्रधर

दिल दिमाग़ में पड़ गया, इक सपने का बीज,
पेड़ उगा तो वहाँ थीं, तरह–तरह की चीज़।

एक शाख भिंडी लगी, दूजी पर अमरूद,
मोबाइल बंदर बने, वहाँ रहे थे कूद।

रिंग टोन हर फ़ोन की अलग सुनाई देय,
एक डाल डंडा पकड़, मुर्गा अंडा सेय।

मुर्गा गांधी बन गया, अंडा बन गया साँप,
फन को फैला देख कर, गांधी जी गए काँप।

एक शाख चौड़ी हुई, फैल गई अतिकाय,
सड़क बनी वह डाल फिर, बढ़त जाय बल खाय,

फ्रिज सोफा पहिये लगे, हुई भयंकर रेस,
चलते एक मकान से निकला सुंदर फेस।

तभी सामने से दिखे, बुलडोज़र के दाँत,
खून मकानों से बहा, बाहर निकलीं आँत।

दाँतों के आतंक ने, ऐसी मारी रेड़,
सपने के उस बीज में, लुप्त हो गया पेड़।

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