प्रस्तुत है खुदा पे लिखी हुई कुछ उम्दा रचनाएँ, जिन्हें मैं पसंद करता हूँ : प्रस्तुत है भाग -१
(१) ज़ाहिद, शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर,
या वो जगह बता, जँहा खुदा नहीं।
या वो जगह बता, जँहा खुदा नहीं।
मिर्जा ग़ालिब
(२) मस्जिद खुदा का घर है, पीने की जगह नहीं,
काफ़िर के दिल में जा, वहा खुदा नहीं।
इकबाल
(३) “काफ़िर के दिल से आया हूँ, मैं ये देख कर फ़राज़,
खुदा मौजूद है वहाँ, पर उसे पता नहीं।
खुदा मौजूद है वहाँ, पर उसे पता नहीं।
फ़राज़
(४). घर से मस्जिद बहुत दूर , चलो की यूँ कर लें
एक रोते हुए बच्चे को हसाया जाए।
नीदा फ़ाज़ली
(५). खुदा के वास्ते , पर्दा न उठा काबे से जालिम
कहीं ऐसा न हो , यहाँ भी वोही काफिर सनम निकले।
मिर्जा ग़ालिब
(६). आइये हाथ उठायें हम भी , हम जिन्हे रस्म -ए-दुआ याद नहीं ,
हम जिन्हें सोज-ए-मोहब्बत के सिवा , कोई बूत , कोई खुदा याद नहीं।
फैज़
(७). ऐ खुद अब समझा तूने ये शराब क्यों बनाई ,
लगता है तुझसे देखा ना गया , ग़ालिब की तन्हाई।
मिर्जा ग़ालिब
(८). खुदा हमको ऐसी खुदाई ना दे ,
कि अपने सिवा हमको कुछ दिखाई ना दे।
बसीर बद्र
(९). पत्थर के खुद हम वहां भी पाये ,
हम चाँद से आज लौट आये।
कैफ़ी आजमी
(१०). हर जर्रा चमकता है , अनवर-ए-इलाही से।
हर साँस ये कहती है , हम हैं तो खुदा भी है।
अकबर इलाहाबादी
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