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Tuesday, 2 June 2015

कवि की अभिलाषा-बेनाम कोहड़ाबाज़ारी

ओ मेरी कविते
तू कर परिवर्तित अपनी भाषा,
तू फिर से सजा दे ख्वाब नए
प्रकटित कर जन मन व्यथा। 

ये देख देश का नर्म पड़े
ना गर्म रुधिर,
भेदन करने है लक्ष्य भ्रष्ट
हो ना तुणीर।

तू  भूल सभी वो बात
कि प्रेयशी की गालों पे,
रचा करती थी गीत
देहयष्टि पे बालों पे।

ओ कविते नहीं है वक्त
देख  सावन भादों,
आते जाते  है मेघ इन्हें
आने जाने दो।

कविते प्रेममय वाणी का
अब वक्त कहाँ है भारत में?
गीता भूले सारे यहाँ 
भूले कुरान सब भारत में।

परियों की कहे कहानी
कहो समय है क्या?
बडे  मुश्किल में हैं राम
और रावण जीता।

यह राष्ट्र पीड़ित है
अनगिनत भुचालों से,
रमण कर रहे भेड़िये
दुखी श्रीगालों से।

बातों से कभी भी पेट
देश का भरा नहीं,
वादों और वादों से सिर्फ
हुआ है भला कभी?

राज मूषको का
उल्लू अब शासक है,
शेर कर रहे  न्याय
पीड़ित मृग शावक है।

भारत माता पीड़ित
अपनों के हाथों से ,
चीड़ रहे तन इसका
भालों से , गडासों से ।

गर फंस गए हो शूल
स्वयं के हाथों में,
चुकता नहीं कोई
देने आघातों में।

देने होंगे घाव कई
री कविते ,अपनों को,
टूट जाये गर ख्वाब
उन्हें टूट जाने दो।

राष्ट्र सजेगा पुनः
उन्हीं आघातों से,
कभी नहीं बनता है देश
बेकार की बातों से।

बनके राम कहो अब
होगा भला किसका ?
राज शकुनियों का
दुर्योधन सखा जिसका।

तज राम को कविते
और उनके वाणों को,
तू बना जन को हीं पार्थ
सजा दे भालों को।

जन  में भड़केगी आग
तभी राष्ट्र ये सुधरेगा,
उनके पुरे होंगे ख्वाब
तभी राष्ट्र ये सुधरेगा।

तू कर दे कविते बस
इतना ही कर दे,
निज कर्म धर्म है बस
जन मन में भर दे।

भर दे की हाथ धरे रहने से
कभी नहीं कुछ भी होता,
बिना किये भेदन स्वयं ही
लक्ष्य सिध्ह नहीं होता।

तू फिर से जन के मानस में
ओज का कर दे हुंकार,
कि तमस हो जाये विलीन
और ओझल मलिन विकार।

एक चोट पे हो जावे  
परजीवी सारे मृत ,
जनता का हो राज
यहां मन सारे तृप्त।

कि इतिहास के पन्नों पे 
लिख दे जन की विजय गाथा ,
शासक , शासित सब मिट जाएँ 
हो यही राष्ट्र की परिभाषा।

जीवन का कर संचार नवल  
सकल प्रस्फ़ुटित आशा,
ओ मेरी कविते
तू कर परिवर्तित अपनी भाषा।



बेनाम कोहड़ाबाज़ारी
उर्फ़
अजय अमिताभ सुमन

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